पालीथीन संस्कृति
शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
इनको देखो
ये वही बच्चे हैं
जिनके कन्धों पर
रख दिया है भार
पूरे देश का
हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने.
इनकी उदास आँखों में
क्या कभी उगेंगे
गुल्ली डंडा और सीसो पाती
से ऊँचे सपने?
ध्यान से देखो और पहचानो
ये वही बच्चे हैं
जिनकी आंखे खुली हैं
कचरे के ढेरों पर.
अब ये बच्चे
कचरे के ढेर से पालीथीन बीनते हैं
माचिस सिगेरेट के खोखों
और निरोध के गुब्बारों से
खेलते हैं.
ये बच्चे पालीथीन बीनते हैं
ये बच्चे पालीथीन छीनते हैं
ये बच्चे पालीथीन जलाते हैं
ये बच्चे पालीथीन खाते हैं
इनके बाबा भी पालीथीन बीनते थे
इनके बच्चे भी पालीथीन बीनेंगे.
ये बच्चे निर्माण कर रहे हैं
एक नई संस्कृति
पालीथीन संस्कृति का.
जिसमें न कोई बच्चा ऊँचा होगा
न कोई बच्चा नीचा होगा
न कोई बच्चा कान्वेंट में पढेगा
न कोई बच्चा मदरसे में पढेगा
न कोई बच्चा पापा की सिगरेट
चुरा कर पीएगा
न कोई बच्चा बप्पा की बीडी के ठूंठ
खोजेगा.
इनकी संस्कृति में
सब बच्चे पढेंगे एक ही मदरसे में
पालीथीन बीनेंगे एक ही कचरे के ढेर पर
एक दूसरे को गलियां देंगे एक ही भाषा में
खेलेंगे एक ही ब्रांड के निरोध के गुब्बारे से
सुट्टे लगायेंगे एक ही ब्रांड की बीडी से.
इस तरह बनेगी इनकी एक नई संस्कृति
पालीथीन संस्कृति
बनेगा एक नया समाज पालीथीन समाज
जहाँ एक और एक मिलकर होगा
ग्यारह /दो नहीं.
०००००००००००००
हेमंत कुमार
ये वही बच्चे हैं
जिनके कन्धों पर
रख दिया है भार
पूरे देश का
हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने.
इनकी उदास आँखों में
क्या कभी उगेंगे
गुल्ली डंडा और सीसो पाती
से ऊँचे सपने?
ध्यान से देखो और पहचानो
ये वही बच्चे हैं
जिनकी आंखे खुली हैं
कचरे के ढेरों पर.
अब ये बच्चे
कचरे के ढेर से पालीथीन बीनते हैं
माचिस सिगेरेट के खोखों
और निरोध के गुब्बारों से
खेलते हैं.
ये बच्चे पालीथीन बीनते हैं
ये बच्चे पालीथीन छीनते हैं
ये बच्चे पालीथीन जलाते हैं
ये बच्चे पालीथीन खाते हैं
इनके बाबा भी पालीथीन बीनते थे
इनके बच्चे भी पालीथीन बीनेंगे.
ये बच्चे निर्माण कर रहे हैं
एक नई संस्कृति
पालीथीन संस्कृति का.
जिसमें न कोई बच्चा ऊँचा होगा
न कोई बच्चा नीचा होगा
न कोई बच्चा कान्वेंट में पढेगा
न कोई बच्चा मदरसे में पढेगा
न कोई बच्चा पापा की सिगरेट
चुरा कर पीएगा
न कोई बच्चा बप्पा की बीडी के ठूंठ
खोजेगा.
इनकी संस्कृति में
सब बच्चे पढेंगे एक ही मदरसे में
पालीथीन बीनेंगे एक ही कचरे के ढेर पर
एक दूसरे को गलियां देंगे एक ही भाषा में
खेलेंगे एक ही ब्रांड के निरोध के गुब्बारे से
सुट्टे लगायेंगे एक ही ब्रांड की बीडी से.
इस तरह बनेगी इनकी एक नई संस्कृति
पालीथीन संस्कृति
बनेगा एक नया समाज पालीथीन समाज
जहाँ एक और एक मिलकर होगा
ग्यारह /दो नहीं.
०००००००००००००
हेमंत कुमार
5 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी सामयिक रचना है।बधाई।
ध्यान से देखो और पहचानो
ये वही बच्चे हैं
जिनकी आंखे खुली हैं
कचरे के ढेरों पर.
" THESE WORDS TOUCHED ME DEEPLY, THE RUIN CONDITION OF CHILDERENS EXPRESSED IN YOUR POETRY AND SO EMOTIONAL PICS OF SMALL CHILDRENS ON YOUR BLOG HAS LEFT AN IMPACT ON ME, VERY EMOTIONAL, PAINFUL...FOR ME ...."
REGARDS
मुझे यह कविता शानदार लगी. अतः शानदार पर टिक किया. आपकी कविता समाज का सीधा सच प्रतिबिंबित करती है. वह सच जिससे हम सभी मुंह चुरा कर भागते रहते हैं.
मैं तो अभी भी इस सच से भागने की पूरी कोशिश कर रहा हूँ, और इस कोशिश में हूँ कि किसी और के मत्थे मध् दूँ. पर अंतर्मन से कैसे बचूं, जो मुझे भी इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराता है.
यदि कुछ कर पाया तो मुझे संतोष मिलेगा.
उम्मीद है कि आप ऐसे ही सच को सामने रखते रहेंगे. हालांकि मुझे आपकी पिछली कविता नागफनी भी अच्छी नहीं लगी थी. उसमें भी कटु सच्चाई थी.
Respected Hemant Bhai Sahab,
Creative Kona.blogspot.com mein aapki kavitaain avem lekh padha. bahut hi marmik kavitaain likhi hai. isse garib baccho ke prati aapki sanvedanseelta prakat hoti hai. durbhagya hai ki desh mein aap jaise log kam hi hain. agar ham sabhi log sacche dil se aaikjut hoker prayas kare to koi bhi kary asambhav nahi hai.
Aapka Chota Bhai,
vinay srivastava.
kavita ne antarman tak no jhjkor diya hai badhaii
priti
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