पुस्तक समीक्षा -प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी
गुरुवार, 21 मई 2020
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक:प्यारा कुनबा
लेखक:निकोलाई नोसोव
रूसी से अनुवाद:विजया
उमराणीकर
चित्रांकन:सौरभ दास
प्रकाशक:एकलव्य
ई-10,शंकर नगर बी डी ए
कालोनी
शिवाजी नगर,भोपाल-462016
संस्करण-2017
प्यारे कुनबे की प्यारी
कहानी
बच्चों का मन बहुत
कल्पनाशील तो होता है।साथ ही उनके अन्दर उत्सुकता भी बहुत होती है।नई चीजों को
जानने की,हर नई चीज को छूने,महसूस करने,छूने का परिणाम जानने की।दुनिया को,प्रकृति
को,घर को,परिवार को समझने की।रोज कोई नया काम करने की।
उनके मन में
ढेरों प्रश्न भी होते हैं..कि अमुक चीज क्या होती है?कैसे काम करती है?क्या इसे हम
भी कर सकते हैं?ये चिड़िया उड़ती कैसे है?ये पंखों को फैला कर ही क्यूँ उड़ रही?पेड़ों
की जड़ें ऊपर क्यूँ नहीं होती?यानि हजारों लाखों सवाल उसके दिमाग पूछता है।
जैसे जैसे वो घर
के बाहर की दुनिया से परिचित होता है उसे अपने बहुत सारे सवालों के जवाब भी मिलते
हैं।कुछ के जवाब स्कूली शिक्षा उसे देती
है तो कुछ के जवाब वो खुद प्रयोग करके सीखता है।एक तरह से देखा जाय तो किसी काम को
करके देखने की उत्सुकता बच्चों की जन्मजात प्रवृत्ति होती है।और बच्चे इसी
जिज्ञासु मन से हर वक्त बहुत कुछ नया सीखते भी जाते हैं।
“प्यारा कुनबा” ऐसे ही कुछ
जिज्ञासु बच्चों की रोमांचक कहानी है।जिसके मुख्य पात्र
मीश्का,उसकी छोटी बहन माया और उसका जिगरी दोस्त कोल्या(निकोलाद्जे)हैं।इस बाल उपन्यास
की पूरी कहानी इन्हीं तीन बच्चों,उनकी जिज्ञासाओं,उनकी योजनाओं और उनके कारनामों
के इर्द गिर्द घूमती है।
उपन्यास की
कथावस्तु संक्षेप में कुछ यूं है कि मीश्का एक दिन किसी अखबार की दूकान से “मुर्गी
पालन” नाम की किताब ले आता है।उसे पढ़ते पढ़ते अचानक मीश्का के दिमाग में एक
इन्क्युबेटर बनाने की बात आ जाती है।वह सोचता है की क्यूँ न एक इन्क्युबेटर घर पर
ही बना कर उसमें अंडे से कर मुर्गी के बच्चे निकाले जायं।मीश्का इस बात की चर्चा
अपने दोस्त कोल्या से करता है।
उसकी योजना सुन
कर कोल्या भी रोमांचित हो जाता है।बस फिर क्या था।शुरू हो जाती है उनकी खोज बीन और
जुगाड़ की प्रक्रिया।पहले वो घर के कबाड़ में पड़े सामानों की छानबीन करते हैं और
उसमें से अपने काम की चीजें जुटाते हैं।मसलन इन्क्युबेटर बनाने के लिए एक लकड़ी का
बाक्स,उसमें ताप बनाये रखने के लिए लैम्प,तापमापी,वगैरह।पहले उन्होंने मिट्टी के
तेल वाला लैम्प लिया पर मीश्का की माँ ने उसके लिए मना कर दिया तो उन लोगों ने बिजली
के लैम्प का जुगाड़ किया।अब बाक्स में नमी बनाए रखने के लिए उसमें पानी रखने का
बर्तन चाहिए तो इसके लिए उन्होंने मीश्का की छोटी बहन माया के खिलौनों में से लकड़ी
की कटोरियाँ मांगी।
पहले उसने
ना-नुकुर की फिर एक चूजे की हिस्सेदारी का आश्वासन पाकर उसने कटोरियाँ दे दीं।इस
तरह उनका इन्क्युबेटर तो बन गया।पर उसमें रखने के लिए मुर्गी के ताजे अंडे कहाँ
मिलें?उसका भी उन्होंने जुगाड़ कर लिया---अपनी मकान मालकिन नताशा मौसी के गाँव
ट्रेन से जाकर वो ताजे अंडे भी लाये।अंडे उस इन्क्युबेटर में रख भी दिए गए।अब 21
दिनों तक उसकी देखभाल,तापमान नियंत्रण,अंडे पलटना कौन करे?इसके लिए तीनों ने आपस
में समय तय कर ड्यूटी लगायी।बाद में उनकी इस योजना में स्कूल के कई दोस्त—कोस्त्या,वीत्या
और टीचर मारिया पेत्रोव्ना भी शामिल हो गयीं।और अंततः 21 दिनों बाद उन्हें प्यारे
प्यारे 10 नन्हें चूजे मिलते हैं और उन्हें वो मौसी के गाँव में ही मुर्गियों के
पास छोड़ आते हैं क्योंकि उन चूजों को शहर में दिक्कत होती।
इस पूरे उपन्यास में इतना अधिक रोमांच है,इतनी उत्सुकता है कि
कोई भी बच्चा एक बार इसे पढना शुरू करके बिना पूरा किये छोड़ नहीं सकता।इस में
बच्चों को वही रोमांच हर जगह दिखेगा जो बच्चों के किसी साहसिक कारनामों वाले उपन्यास में मिल सकता है।मसलन क्या
इन्क्युबेटर में रखे अण्डों से बच्चे (चूजे)निकलेंगे?तो कब निकलेंगे?जब निकलेंगे
तो उस वक्त क्या घटना होगी?वगैरह वगैरह।
बच्चों की
जिज्ञासाओं प्रश्नों को इस उपन्यास में इस तरह चित्रित किया गया है कि पाठकों को ऐसा
लगता है-- पात्रों को हम सामने ही बात करते देख रहे।उदहारण के लिए आप मीश्का और
कोल्या की शुरूआती बातचीत देख सकते हैं।
“शायद हमारे लिए
इन्क्युबेटर बनाना जरूरी नहीं है।अण्डों को बस एक बरतन में रख कर अंगीठी पर रख
दिया जाय।“मैंने प्रस्ताव रखा।
“अरे इसमें कुछ नहीं होगा” मीश्का बोल उठा।“आग बुझ जायेगी
और सारे अंडे खराब हो जायेंगे।इन्क्युबेटर
की विशेषता यह है की उसमें बराबर 39 डिग्री सेंटीग्रेट ताप रहता है।”
“39 डिग्री ही क्यूँ?”
“इसलिये कि जब
मुर्गी अंडे सेती है,तब उसका ताप यही होता है।”(पृष्ठ संख्या-9)
इसी तरह पूरे उपन्यास में पल पल बदलते
घटनाक्रम,अण्डों से निकलने वाले चूजों को लेकर बच्चों के भीतर की उत्सुकता हमें
पूरे कथानक में हर जगह दिखाई पड़ती है।21 दिन पूरे होने के बाद भी जब चूजे नहीं
निकल रहे थे तो बच्चे बहुत निराश भी हो जाते हैं–ये सोच कर कि उन्हीं लोगों की
किसी गलती से सारे अंडे खराब हो गए।पर मीश्का और कोल्या अभी भी आशान्वित थे और
उनकी आशा फलीभूत भी हुयी।जब दोनों ने पहली बार एक अंडे में दरार देख कर एक चूजे की
पतली चोंच देखी उस वक्त के रोमांच को देखिये लेखक ने किस खूबसूरती से लिखा है।
“देखो”,उसने अपना अंडे वाला हाथ मेरी और बढाते हुए फटी हुयी
आवाज में कहा।पहले मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया,लेकिन फिर एक जगह पर बाल जैसी कोई
चीज नजर आई -----“तो क्या चूजे ने ऐसा किया है?”मीश्का ने सर हिला कर हामी भरी।
मैंने अपने नाखून
से खोल के फटे टूकडे को सावधानी से ऊपर उठाया जिससे अंडे में एक छोटा सा छेद बन
गया।उसी क्षण एक नन्हीं सी पीली चोंच ने अपने आपको छेद से बाहर निकाला और फिर गायब
हो गयी।
हम इतने
उत्तेजित हो गए थे कि मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाल सके।बस हमने एक दूसरे को खुशी
के मारे कास कर भींच लिया।(पृष्ठ संख्या-69)
इस तरह से इस
उपन्यास के कथानक का ताना बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि इसे पढने वाले बच्चों
को कहीं भी यह नहीं लगेगा कि इसमें घट रही घटनाएँ उनसे कहीं अलग हैं।उन्हें हर समय
यही लगेगा की अरे ये तो मैं ही हूं जो इस तरह अण्डों को सेने की मशीन बना रहा
---अरे ये तो मेरे फलां दोस्त जैसी ही बात कर रहा।यही संभवतः इस उपन्यास की सबसे
बड़ी विशेषता है।
कुछ बातें और
जिन्हें इस किताब के सन्दर्भ में लिखा जाना जरूरी है वो यह कि हिन्दी भाषा में
विज्ञान कथाएं,उपन्यास,विज्ञान गल्प बहुत संख्या में लिखे गए हैं और लिखे जा रहे
हैं।लेकिन उनमें कम संख्या ऐसी कहानियों या उपन्यासों की होगी जिसमें कि बच्चे ही
किसी वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित प्रयोग को खुद करके देख और सीख रहे हों।या फिर
किसी मशीन को खुद बनाने का उपक्रम कर रहे हों।
यहाँ मैं यह नहीं कह रहा की ऎसी विज्ञान कथाएं हिंदी में
हैं ही नहीं।हैं लेकिन कम संख्या में।और दूसरी बात उनमें कहीं न कहीं बड़े पात्रों
का भी इन्वाल्वमेंट है।
लेकिन “प्यारा
कुनबा” उपन्यास की ये सबसे बड़ी खासियत और सफलता कही जायेगी कि इसके शुरू से लेकर
आखिर तक ---- इन्क्युबेटर बनाने की पूरी योजना से अण्डों से चूजे निकलने तक---सारे
काम बच्चों द्वारा खुद ही किये गए हैं।सिर्फ एकाध जगह उन्हें बड़ों की सलाह मिली है
बस।बाक़ी का सारा काम बच्चों ने खुद किया है।इस तरह ये उपन्यास बच्चों में करके
सीखने,अनुभव करने,घटनाओं को नियंत्रित करने और सबसे बड़ी बात किसी काम में आपसी
सहयोग की भावना का भी विकास करेगा।
हमारे
मनोवैज्ञानिक,शिक्षाशास्त्री भी इस बात पर बल देते हैं कि विज्ञान आदि से सम्बंधितआडियो, वीडियो कार्यक्रमों में और साथ
ही विज्ञान पर आधारित बाल साहित्य में भी बच्चों को खुद करके सीखने पर जोर दिया
जाना चाहिए।उनके सामने ऐसी परिस्थितियाँ रखी जायं जिससे उनके अन्दर खुद करके सीखने
की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सके बजाय इसके कि कोई बड़ा आकर उन्हें बार बार किसी चीज
को समझाए।और ऐसे कार्यक्रम,साहित्य बच्चों के लिए ज्यादा उपयोगी,आनंददायी और सार्थक
होते हैं।
यद्यपि यह
उपन्यास रूसी भाषा से हिन्दी में अनूदित
है।लेकिन अनुवाद के स्तर पर भी इस बात का पूरा ध्यान रखा गया शब्द बच्चों के
बोलचाल वाले ही हों,वाक्य छोटे-छोटे और भाषा का प्रवाह बना रहे।इसमें बने खुबसूरत
और आकर्षक चित्र किताब को और पठनीय बनाते हैं।
कुल मिला कर
“प्यारा कुनबा”सचमुच बच्चों को बांधे रखने वाली एक प्यारी किताब है और इसे आप सब
अपने बच्चों को जरूर पढ़वाइये।
००००
समीक्षक-डा०हेमन्त कुमार
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