सिर्फ़ साहित्यकार,समालोचक और समाजवादी चिंतक ही नहीं थे ---डा0रघुवंश।
शुक्रवार, 22 अगस्त 2014
सन1979 में डा रघुवंश जी से
मेरी पहली मुलाकात इलाहाबाद में उनके बैंक रोड स्थित आवास पर हुयी थी।मैं उनके निर्देशन
में शोध करना चाहता था।पहले तो उन्होंने एकदम साफ़ मना कर दिया।पर दो तीन दिन
लगातार जाने के बाद जब मैंने उनसे कहा कि मैं रिसर्च आपके साथ ही करूंगा, नहीं तो
नहीं तब मुझे उनके साथ रिसर्च ज्वाइन करने का सौभाग्य मिल सका।
डा0रघुवंश जी के साथ मैं
लगभग सात-आठ साल रहा।चार साल शोध,तीन--चार साल रिसर्च असिस्टेण्ट के रूप में। इस
दौरान मुझे उन्होंने एक गुरु,पिता और मित्र तीनों ही का स्नेह दिया।उनके साथ मैंने
देश के हर कोने की लंबी लंबी यात्राएं की।बड़े-बड़े साहित्यकारों से मिला और खूब
अच्छी अच्छी दावतें भी उड़ाईं।ऐसी ही एक यात्रा के दौरान घटित एक घटना का उल्लेख
मैं यहां करूंगा जिससे रघुवंश जी की जीवटता और हिम्मत का अंदाजा लग सकता है।
मुझे रघुवंश जी के साथ इलाहाबाद
से गोरखपुर किसी सेमिनार में जाना था। उन दिनों भटनी से आगे की यात्रा छोटी
लाइन(नैरो गेज)की ट्रेन से होती थी।ट्रेन बदलने हमे दूसरे प्लेटफ़ार्म पर जाना था।सिर्फ़
दो मिनट थे ट्रेन छूटने में।कुली दिख नहीं रहे थे।मैंने कहा सर ट्रेन छूट जायेगी
क्या?रघुवंश जी ने कहा ---अरे ऐसे कैसे छूटेगी ट्रेन।अभी देखो ---। “और अपने मुड़े हुये हाथों में ही एक
में बैग और एक में छोटी अटैची उठा कर रघुवंश जी दौड़ पड़े दूसरे प्लेटफ़ार्म की
ओर---अब मैं भी पीछे पीछे दो भारी वाली अटैचियां लेकर दौड़ा---और अन्ततः हमें गाड़ी
मिल गयी। तो ऐसे कर्मठ,और हिम्मत वाले इन्सान थे रघुवंश जी। ऐसे महान और बहुमुखी
प्रतिभा वाले व्यक्ति का इस तरह जाना---सच में हिन्दी साहित्य के साथ ही भारत के
बुद्धिजीवियों की अपूरणीय क्षति कही जायेगी।
ड़ा रघुवंश जी का जन्म 30 जून 1921 को उत्तर
प्रदेश के गोपामऊ कस्बे में हुआ था।बचपन से ही हाथों की विकलांगता के बावजूद भी आपने पढ़ाई की।अँगूठे साल तक सिर्फ़ पढ़ना ही
हो सका।पर अन्ततः एक दिन अपने हाथों और पैर के अंगूठों में कलम फ़ंसा कर लिखने भी
लगे।लिखने पढ़ने का ये जो सिलसिला शुरु हुआ तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
एम0ए0,डी0फ़िल0 भी कर लिया।और वहीं पर अध्यापन भी करने लगे।
डा0रघुवंश जी ने कभी किसी को यह अहसास होने ही
नहीं दिया कि उनके दोनों हाथ खराब हैं।वो अपने सारे ही काम दोनों हाथों और पैरों
के सहारे बखूबी सम्पन्न कर लेते थे।लिखने के लिये वो तखत य चौकी पर बैठ कर अपने
दाहिने पैर के अंगूठे में पेन फ़ंसा कर अपने दाहिने हाथ की सहायता से काफ़ी तेज गति
से लिख लेते थे।दाढ़ी बनाना,कंघी करना,खाना खाना, कपड़े बदलना हर काम वो खुद ही करते
थे---हां कभी कभी बटन लगाने में उन्हें जरूर थोड़ी दिक्कत होती थी ----वो भी जल्दी
रहने पर।समय रहता था तो ये भी वो खुद ही करते थे। उनके अंदर जीवन के प्रति जो जिजीवषा,कर्मठता,और
कुछ अलग और नया करने की इच्छा थी शायद उसी ने उन्हें इतने बड़े बड़े उपन्यास,शोध और
आलोचना की पुस्तकें लिखने के लिये प्रेरित किया।
एक अध्यापक के रूप में रघुवंश जी
ऊपर से दिखने में जितने कठोर थे अंदर से उतने ही मृदु और कोमल स्वभाव वाले।अक्सर छात्रों
को डांटते तो कुछ समय बाद ही माहौल को हलका करने के लिये उनसे मजाक भी कर देते।एक
अध्यापक के साथ ही आप देश के प्रमुख समाजवादी
चिंतकों में से एक थे।एक जमाने में
इलाहाबाद में उनके बैंक रोड स्थित आवास पर हमेशा साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का
जमावड़ा रहता था।
साहित्यकार के रूप में
उन्होंने हिन्दी साहित्य को छायातप,तंतुजाल,अर्थहीन,वह अलग व्यक्ति,हरी घाटी
जैसे उपन्यास दिये दूसरी ओर प्रकृति और काव्य,नाट्यकला,साहित्य
का नया परिप्रेक्ष्य,कबीर,सर्जनशीलता का आधुनिक संदर्भ जैसी आलोचनात्मक
पुस्तकें। इमर्जेंसी में जेल में बन्दी जीवन बिताते हुये “जेल और स्वतन्त्रता”जैसी पुस्तक तैयार करना
डा0रघुवंश जैसे कर्मठ व्यक्ति के बस की ही बात थी। नहीं तो इमर्जेन्सी में मीसा
बन्दियों की जेल में क्या हलत होती थी इसे कौन नहीं जानता। इसके साथ ही रघुवंश जी
ने “आलोचना”,”आलोचना समीक्षा”,”क ख ग”जैसी पत्रिकाओं का
संपादन कार्य भी संभाला।
डा0रघुवंश को
1992मेंउ0प्र0हिन्दी संस्थान” से “साहित्य भूषण”,के के बिड़ला फ़ाउण्डेशन
से शंकर पुरस्कार1994 में उ0प्र0हिन्दी संस्थान से”साहित्य-भारती”,2008 में भारतीय
ज्ञानपीठ द्वारा”मूर्तिदेवी”पुरस्कार प्रदान किया
गया। सामन्यतः 80 वर्ष के बाद साहित्य सृजन कम ही लोग कर पाते हैं परन्तु रघुवंश
जी 92 साल की उम्र में भी सक्रिय थे।उनकी अंतिम पुस्तक ”यूरोप के इतिहास की प्रभावी
शक्तियां” अभी एक डेढ़ साल पहले ही प्रकाशित हुयी है।
रघुवंश जी के साथ मेरी अंतिम
मुलाकात 2009 में दिल्ली में उनके मझले पुत्र श्री ज्योति मित्र के घर पर हुयी थी।
मैं एन सी ई आर टी में किसी वर्कशाप में गया था।डा0साहब को फ़ोन किया तो उन्होंने
कहा कि बेटा हेमन्त इस बार मुझसे मिल कर ही जाना। अगले दिन सुबह मैं गया। तब शायद
आदरणीया सावित्री जी जीवित थीं। मेरे लिये ढेर सारा नाश्ता बनवा कर रखा था रघुवंश
जी ने। काफ़ी देर बातें होती रहीं। पेट भर नाश्ता करके जब मैं चलने को हुआ तो
रघुवंश जी ने मुझसे कहा”हेमन्त मैं चाहता हूं तुम एक नयी परम्परा को जन्म दो?” मैं बत समझा नहीं और उनकी तरफ़
प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगा। मेरा आशय समझकर वो बोले, “देखो ये तो आम बात है कि कोई
गुरु अपने शिष्य की किसी पुस्तक की भूमिका लिखता है। मैं चाहता हूं तुम उल्टा करो।
मतलब मेरे नये उपन्यास की भूमिका तुम लिखो। यह एक नयी परम्परा होगी।कि एक शिष्य
अपने गुरु की किताब की भूमिका लिखेगा।?”
ऐसे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति इतने
बड़े बुद्धिजीवी,साहित्यकार और चिन्तक का जाना सच में एक बड़े शून्य का बन जाना
है--- जिसके भरने में वक्त तो लगेगा ही। हमारे आज के युवाओं के साथ ही उन विकलांग
व्यक्तियों को भी डा0रघुवंश जी के जुझारू और सौम्य सरल व्यक्ति से प्रेरणा लेनी
चाहिये जो अपनी शारीरिक विकलांगता को अपनी कमी मान कर हिम्मत हार बैठे हैं या किसी
हीन भाव से ग्रस्त हैं। यही आदरणीय डा रघुवंश जी के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।
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डा0हेमन्त कुमार
1 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर लेख. रघुवंशजी को श्रधांजलि
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