भयाक्रांत
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
पुतलियों में
अब नहीं होती
कोई हलचल
सतरंगे गुब्बारों
और लाल पन्नी वाले
चश्मों को देखकर।
नहीं फ़ड़कते हैं अब
उसके होंठ
बांसुरी बजाने के लिये
नहीं मचलती हैं उसकी उंगलियां
रंगीन तितलियों के मखमली स्पर्श
को महसूस करने के लिये।
उसके पांवों में
नहीं होती है कोई हलचल
अब
गली में मदारी की
डुगडुगी की आवाज सुनकर
नहीं उठती है उसकी गुलेल
कच्ची अमियों पर निशाना
लगाने के लिये।
पिछ्ले कुछ दिनों से
उसकी आंखों में
जम गया है खून
होठों पर लग गया है ताला
लग गयी है जंग
हाथों और पांवों में।
जबसे उसने देखा है
अपने गांव की कच्ची गलियों में
फ़ौलादी मोटरों की कवायद
सगीनों की चमक
और बारूद के धमाकों के बीच
अपनी बूढ़ी दादी और बड़ी बहन
की लाशों को
खाकी वर्दी द्वारा
घसीटे जाते हुये।
0000000
हेमन्त कुमार