होलीनामा
शनिवार, 27 फ़रवरी 2010
होलीनामा
सबसे पहले मैं अपने स्वर्गीय बाबा,दादा की वन्दना करता हूं। जिनकी बदौलत आज होलीनामा की ये चन्द सतरें लिखने के काबिल हुआ हूं। फ़िर अपने पिताश्री का स्मरण करता हूं जिन्होंने मरते वक्त वसीयत में मुझे कुछ चीजें सौंपते हुये कहा था—‘देख बेटे यह तो है एक डिबिया जिसमें पांच छोटी छोटी सूखी फ़लियां हैं,इन्हें हमारे जमाने में इलायची कहा जाता था। इन फ़लियों पर एक फ़ीका हरा छिलका होगा। जिसे उतार देने पर अन्दर काले रंग के छोटे छोटे कई दाने निकलेंगे। एक दाना एक आदमी को खाने के लिये दिया जा सकता है। अगर आदमी ज्यादा हों तो उसी के मुताबिक दाने के और भी कई टुकड़े किये जा सकते हैं। डिबिया में काले रंग की एक छोटी सी सूखी लकड़ी होगी।इसे लौंग कहते थे हमारे जमाने में। इसे जरा से पानी में घिस कर एक बूंद जबान पर
रख लो तो इलायची के दाने की तरह इससे भी मुंह का जायका बदल जाता है। जहां तक मुझे याद है मेरे बचपन तक यह चीज खास दूकानों पर परमिट से दो एक मिल जाया करती थी।’
मैं ताज्जुब से उनका चेहरा देखने लगा। यह इलायची नाम की फ़ली जिसके भीतर दाने निकलेंगे, या यह लौंग नाम की सूखी लकड़ी इन्हें लेकर मैं क्या करूंगा? तभी पिताश्री फ़िर बोले—‘बेटे,तुझे यह जान कर ताज्जुब होगा कि मेरे बाप यानि तेरे बाबा के जमाने तक होली का त्योहार हर साल आता था। फ़िर धीरे धीरे यह दो दो ,चार चार साल पर पड़ने लगा। अब तो जिन्दगी में यह सिर्फ़ एक बार आता है---शादी के बाद। शादी होने पर आदमी जब पहली बार अपनी ससुराल जाता है तो वहां होली का त्योहार मनाया जाता है। अगर आदमी की बीबी मर जाय और उसकी दूसरी शादी हो, तो उसे जिन्दगी में दूसरी बार भी होली का त्योहार देखने का मौका मिल सकता है। हां तो बेटे,मैं यह कह रहा था कि इस त्योहार के दिन नाश्ते वगैरह के बाद यह इलायची और लौंग
खाने खिलाने का रिवाज था। अब ये पांच इलायचियां इस लिये तुझे देकर जा रहा हूं कि एक इलायची तू अपनी शादी के बाद अपनी ससुराल ले जाना होली के लिये। दूसरी अपने छोटे भाई को दे देना। तेरे तीन बहनें हैं, उनकी भी शादियां होंगी। और तीन होलियां तुझे अपने घर पर मनानी होंगी अपने बहनोइयों के साथ। ये तीनों इलायचियां
उस समय काम आयेंगी।
फ़िर उन्होंने बड़े जतन से तह किया हुआ एक कुर्ता—पायजामा निकालकर मुझे दिया और समझाया---“बेटे,मेरे बाप के बाप अर्थात तेरे पड़ बाबा ने रूई के सूत का यह कुर्ता पायजामा सिलवाया था। इसे पहन कर होली खेलने का रिवाज है। इसे सम्हाल कर रख,आगे की पीढ़ियों को भी इसी से होली खेलनी होगी। उन दिनों खेतों में कपा नाम का एक पौधा होता था। उसमें रूई के फ़ूल खिलते थे। उसी के धागों से यह कपड़ा
बनता था।”
पिताश्री के बेहद कष्ट में होने के बावजूद मैं हंस पड़ा। कैसे जंगली लोग थे उन दिनों के---कि खेतों में कपड़ों के बीज बोते थे।
पर उन्होंने मेरी हंसी पर कोई ध्यान दिये बिना उस सुनहली डिबिया पर बड़े प्यार से उंगलियां फ़िराते हुये कहा---“बेटे,अब यह इलायची और लौंग एक नायाब चीज है।मोहल्ले में क्या,पूरे शहर में यह किसी और के पास नहीं है। इसी तरह यह कुर्ता पायजामा भी सिर्फ़ मेरे ही पास है। इन्हें म्युजियम में रखने के लिये सरकार ने कई बार मुझे मुंह मांगी कीमत देनी चाही पर मैंनें स्वीकार नहीं किया। इससे पहले मेरे बाप बेवकूफ़ी कर चुके थे। तब चमड़े के जूते होते थे,जिनका वजन 100 ग्राम से लेकर कभी कभी तीन चार सौ ग्राम तक होता था। वे उन्होंने सस्ते में सरकार को दे दिये। आज होते तो उनकी कीमत लाखों में होती। मैंने वह गलती नहीं की और न तू वैसी गलती
करना।
मेरे पिताश्री चले गये।पांचों इलायचियां ,लौंग और वह कुर्ता पायजामा मेरे पास रह गये। जब मेरी शादी हुयी और मुझे पहली बार ससुराल जाना हुआ तब स्वर्गीय पिताश्री से मिली चीजों की याद आई। मैंने सेफ़ में बड़े जतन से रखी डिबिया में से एक इलायची निकाली और वह सूत का कुर्ता पायजामा भी रख लिया। मैंने इम्पोर्टेड पोलीथिन का एक कीमती सूट पहना हुआ था और वैसे ही कई सूट मेरी अटैची में भी थे।उनके आगे यह कुर्ता पायजामा बड़ा अजीब सा लग रहा था। पर जैसा कि मैंने पिताश्री के मुंह से सुना था कि होली के त्योहार पर पानी में रंग घोल कर कपड़ों पर डाला जाता है,यह कुर्ता पायजामा उस मौके के लिये जरूर काम का था। पालीथिन पर तो पानी या रंग चढ़ता ही नहीं था।
कहते हैं शोहरत के पांव आदमी से तेज होते हैं। सो मेरी ससुराल में वह मुझसे पहले जा पहुंची।पहुंचते ही ससुर जी ने फ़रमाया---“जमाई साहब हमें मालूम हो चुका था कि आप कुछ दुर्लभ चीजें लेकर पधार रहे हैं। इसी लिये हमने सारे मोहल्ले वालों को देखने की दावत दे दी है।”
मैंने देखा---एक दर्जन साले सालियों के पीछे श्रीमती जी की नीली झील जैसी आंखें बड़ी बेताबी से मेरा जवाब पाने का इन्तजार कर रही थीं। मैं समझ गया कि यह शुभ समाचार उन्होंने ही अपने मैके वालों को दिया होगा कि मैं चन्द नायाब चीजें लेकर होली मनाने आऊंगा। जैसे ही मैंने ससुर साहब की बात का अनुमोदन किया घर भर की बांछें खिल गयीं। साले सालियां मुहल्ले भर को यह खुशखबरी देने दौड़ पड़े कि जीजा जी सचमुच अलादीन का जादुई चिराग लेकर आये हैं। अब वह चीज क्या है,यह तो शायद खुद मेरी श्रीमती जी को ही ठीक से मालूम नहीं था,उन बेचारों को क्या पता?
घर में होली की जबर्दस्त तैयारियां थीं। मेरी तरह उनके यहां भी कम से कम मेरी उमर वालों को तो यह पहली होली देखना मयस्सर हो रहा था। सुबह से ही यह धो वह पोंछ,यह बिछा वह सजा का आलम था।तय यह हुआ कि पहले रंग खेल लिया जाय फ़िर खाना खाया जाय। जब मैनें हिफ़ाजत से रखा हुआ अपना सूती कुर्ता पायजामा निकाला तो लोग देखते ही रह गये। सैकड़ों जोड़ा निगाहें उस वक्त उन कपड़ों को निकालने से लेकर पहनने तक की सारी क्रिया बड़ी उत्सुकता से देख रही थीं। मैंने किस तरह कुर्ते में अपनी बाहें डालीं,कैसे उसके बटन लगाये,कैसे पायजामे की मोहरियों में पैर डाले और फ़िर इजारबन्द कसा, सारी बातें उन्हें बड़ी अलौकिक लग रही थीं। कोई मशीन की बखियों को छू रहा था तो कोई बटन काज छू कर देख रहा था। उस जमाने
के दर्जी की अक्ल के बारे में तरह तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं।
ईश्वर मेरे पिताश्री को स्वर्ग में जगह दे,उन्होंने सचमुच मुझे एक ऐसी चीज दी थी जिसे लोग अब सिर्फ़ किसी संग्रहालय में ही देख सकते थे। कपड़े पहन कर मैं खड़ा हुआ तो ससुर साहब ने मोहल्ले वालों को बड़े गर्व से देखा।उनकी निगाहें जैसे कहना चाहती थीं---देखा,मैंने तुम्हें गलत खबर नहीं दी थी।
मैंने ससुर जी से निवेदन किया—“अब मैं होली खेलने के लिये तैयार हूं।"मगर यह क्या ! मेरे मुंह से इतना निकलना था कि सभी के चेहरे फ़ीके पड़ गये। आंखों पर जो नूर चमक रहा था,उसकी जगह मातम छा गया। हे ईश्वर मैं समझ नहीं पाया कि मुझसे क्या कसूर हो गया है?तभी ससुर जी रुआंसे होकर बोले---“लेकिन जमाई जी,इन कपड़ों को पहन कर आप होली खेलेंगे तो हम लुट जायेंगे।
मैं ससुर जी की बात बिल्कुल नहीं समझ पाया। मेरे इन कपड़ों के पहन कर होली खेलने से वह कैसे लुट जायेंगे। पर वह बराबर आग्रह करते रहे कि मैं उन कपड़ों को उतार कर रख दूं। उन्होंने मेरे और घर के सभी लोगों के लिये होली खेलने के कपड़े सिलवाये थे।वो चाहते थे कि वे ही इस्तेमाल हों। मैंने उन्हें पिताश्री की बात बताई----‘सूती कपड़े पहन कर होली खेलने का रिवाज था हमारे यहां।’
‘तो बरखुरदार,कौन तुम्हें यहां कहता है कि सूती कपड़ों में मत होली खेलो।’ससुर जी बोले।लाचार मैंने गिरे हुये मन से अपना कुर्ता पायजामा उसी तरह तह करके रख दिया और अपना मशीन में ढला हुआ पालीथिन का सूट पहन लिया।
फ़िर मेरे पिताश्री की ही तरह मेरे ससुर जी ने भी मेरे सामने एक डिबिया खोली---उसमें मेरे लिये नया सिला हुआ कुर्ता और पायजामा रखा था। उसे निकाल कर उन्होंने मेरी हथेली के बीच में रख दिया। उनकी लम्बाई चौड़ाई करीबन सात आठ से0मी0थी। इसी तरह दूसरों के भी कपड़े थे।वह बोले—‘अब कपड़े सीने वाले दर्जी तो रहे
नहीं।पूरे शहर में मुश्किल से एक स्पेशलिस्ट बचा है। वह मनमानी सिलाई चार्ज करता है। अब चूंकि किताबों में लिखा है कि होली सूती कपड़ों में खेली जाती है,इसीलिये सिलवाने पड़े। मेरा तो दिवाला निकल गया।’
हम लोग अपनी अपनी हथेलियों पर अपने कुर्ते पायजामे या साड़ी ब्लाउज लेकर उस बड़े कमरे में पहुंचे जहां होली खेलने की व्यवस्था थी। कमरे में एक ओर मेज के गिर्द औरतें खड़ी थीं और दूसरी ओर मर्द।मैं दूसरी ओर मर्दों की जमात में पहुंचा।देखा मेज पर एक कटोरी में रंग घुला हुआ था और रंग खेलने के लिये पन्द्रह बीस आई ड्रापर पड़े हुये थे। दूसरी मेज पर भी वैसा ही इन्तजाम था। अब ससुर जी की बात समझ
में आई कि मैं अपना कुर्ता पायजामा पहन कर रंग खेलता तो वह कैसे लुट जाते।
अब समां यह था कि लोग ड्रापर में दो दो बूंद रंग भर कर एक दूसरे के पीछे भाग रहे थे। हरेक अपने नये सिले कपड़ों को रंग से बचाने के चक्कर में था। यह अच्छी खासी धमाचौकड़ी तब तक चलती रही,जब तक हरेक के कपड़ों पर दो चार बूंद रंग नहीं पड़ गया। मुझे भी बड़ी खुशी हुयी कि मैंने और मेरे समवयस्कों ने आज रंग खेल कर मनाया जाने वाला होली का त्योहार देखा।
उसके बाद हम लोग खाने की मेज पर पहुंचे। लोग किसी चीज को पढ़ने में जुटे हुये थे।मुझे बताया गया कि वह आज के खाने का मीनू है। मैंने देखा वह मीनू कम एक अलबम ज्यादा था। उसमें गुझिया,समोसे,पेड़े,पापड़ से लेकर आलू गोभी की सब्जी,टमाटर का सास,मटर पनीर ,कटहल के कोफ़्ते और खस्ते,कचौरियों तथा सादी पूरियों तक की रंग बिरंगी तस्वीरें थीं।
हमारे सामने कटोरियों में गरम पानी परोस दिया गया। इसके बाद अपनी अपनी खाने की पसन्द थी।जिसे जो चीज पसन्द हो उसके कैप्सूल अलग अलग प्लेटों में रखे थे। मुझे बचपन से ही मीठा बहुत ही पसन्द है।इसीलिये मीठे की सचित्र सूची देखकर मैंने गुझिया और गाजर के हलवे का एक एक कैप्सूल निकाला और अपनी कटोरी में डाल लिया। नमकीन का जायका लेने के लिये खस्ता कचौरी,पापड़ और मटर पनीर का भी एक एक कैप्सूल ले लिया। चीजों की महक बड़ी प्यारी थी। अपने बाबा दादाओं के भाग्य पर ईर्ष्या होने लगी,जिन्हें मूल वस्तुओं के खाने का सुख मिला था। जल्द ही पेट भर जाने से मुझे डकारें आने लगीं और मैं भोजन खत्म करके सबके साथ उठ खड़ा हुआ।
अब मैं ड्राइंग रूम में था और सारा परिवार मेरे चारों ओर। वह क्षण बेहद करीब था,जिसके लिये उनके दिल बेकरार थे। मैंने सम्हाल कर एक छोटी चमकती डिबिया में से इलायची नाम की वह वस्तु निकाली जो मुझे अपने स्वर्गीय पिताश्री से मिली थी। हरेक ने उसे अपनी हथेली पर रख कर अच्छी तरह घुमा घुमा कर देखा। जैसा किसी जमाने में लोगों ने चन्द्रलोक से आये हुये चट्टानों के टुकड़ों को पहली बार देखा होगा। जैसा कि मेरे पिताश्री ने बताया था,मैंने धीरे धीरे उस पर से हरा छिलका उतारा अन्दर से काले मगर खुशबूदार दाने बाहर निकल आये।मैंने अन्दाजा लगाया कि हरेक को एक एक दाना दिया जा सकता है। मगर तभी ससुर साहब ने फ़रमाया—जमाई साहब ,हमें गर्व है कि ईश्वर ने आपको ऐसी नायाब चीज दी है।देखो मेरे और भी बेटे बेटियां हैं।उनको भी होलियां मनानी पड़ेंगी। क्या आप इन दानों में से कुछ मुझे नहीं दे सकते?
कहना न होगा कि आधे दाने बड़ी सफ़ाई से मेरे ससुर साहब ने हथिया लिये। फ़िर मैंने अपने पिताश्री का बताया फ़ार्मूला अपनाया। बचे हुये दानों के टुकड़े किये और हरेक को बांट दिये।
इस तरह जिन्दगी में पहली बार होली मनाकर मैं अपनी श्रीमती जी के साथ घर वापस हुआ। सब कुछ ठीक है। लेकिन अब मुझे अपनी श्रीमती जी की सेहत का अधिक ध्यान रखना पड़ता है। क्योंकि ईश्वर न करे उन्हें कहीं कुछ हो गया और दोस्तों रिश्तेदारों के दबाव में आकर ही मुझे दूसरा ब्याह रचाना पड़ा तो मैं अपनी दूसरी होली मनाने के लिये अब दूसरी इलायची कहां से लाऊंगा?
अब मैं चाहता हूं कि मेरा यह होलीनामा किसी ऐसे मजबूत टाइम कैप्सूल में रखकर दिल्ली में कहीं गाड़ दिया जाय। ताकि भविष्य की पीढ़ी को भी यह मालूम हो कि कभी होली जैसा कोई त्योहार मनाया जाता था।
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प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
( इस व्यन्ग्य के लेखक मेरे पिता जी श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी हिन्दी साहित्य के लिये नये नहीं हैं। आप पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन में संलग्न हैं। आपने कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की रचना की है। आपकी कहनियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ वृत्त चित्रों का लेखन कार्य भी किया है। 1950 के आस पास शुरू हुआ आपका लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 82 वर्ष की उम्र में भी जारी है।)
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।
13 टिप्पणियाँ:
लगाते हो जो मुझे हरा रंग
मुझे लगता है
बेहतर होता
कि, तुमने लगाये होते
कुछ हरे पौधे
और जलाये न होते
बड़े पेड़ होली में।
देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल
मुझे खून का आभास होता है
और खून की होली तो
कातिल ही खेलते हैं मेरे यार
केसरी रंग भी डाल गया है
कोई मुझ पर
इसे देख सोचता हूँ मैं
कि किस धागे से सिलूँ
अपना तिरंगा
कि कोई उसकी
हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर
अलग अलग झँडियाँ बना न सके
उछालकर कीचड़,
कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे
पर तब भी मेरी कलम
इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी
विश्व आकाश पर सतरंगी सपने
नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर
सब छूट जाते हैं, झट से
सो रंगना ही है मुझे, तो
उस रंग से रंगो
जो छुटाये से बढ़े
कहाँ छिपा रखी है
नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?
डालना ही है तो डालो
कुछ छींटे ही सही
पर प्यार के प्यार से
इस बार होली में।
-विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र'
यही होने जा रहा है भारत में. बढ़ती आबादी कहीं का नहीं छोडेगी-भारतीय नागरिक.
एक ब्रेक के बाद फिर से आप का स्वागत है .
मटर पनीर,गुझिया और गाजर के हलवे का कैप्सूल !!
यही होने जा रहा है :)....
आप के पिताजी का लिखा यह व्यंग्य अच्छा लगा .
आपको सपरिवार होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं
वाह, वर्तमान को भविष्य की नजर से देखने पर क्या जबरदस्त व्यंग बनता है। बहुत अनूठा और सशक्त। अपने पिताजी की दमदाअ लेखनी से परिचय कराने के लिये धन्यवाद।
आपको भी होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं
पिता जी को नमन!!
ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.
आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.
-समीर लाल ’समीर’
Holi ke madhyam se bhavishaya ki tasveer achhi ban pari hai HAPPY HOLI
ACHHA VYANG HAI .. AAPKO AUR PARIVAAR KO HOLI KI BAHUT BAHUT SHUBH-KAAMNAYEN ...
vyang padhkar bahut sunder laga.happy holi....
hemant ji sundar panktiyaan...
Aapke pitaji ka likha vyang ek alag duniyame le gaya! Vyang bhi..peedabhi!
आप के पिता जी का लिखा व्यंग्य काफी रोचक लगा ।
bahut badhiya lekhani..
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