व्यंग्य--हंगामाये वर्कशाप -- बोले तो -- चाकलेटी बच्चे / खुरदुरे बच्चे
सोमवार, 22 जून 2009
इस समय गर्मी की छुट्टियां चल रही हैं।गर्मी की छुट्टियों में शहरी बच्चों की तो मौज ही मौज रहती है।सुबह से शाम तक मौज। हर शहर में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों के लिये एक बहार सी आ जाती है। आप कहेंगे ये कौन सी बहार है भैया जो गर्मियों में ही आती है?अरे जनाब ये बहार होती है वर्कशाप यानी कार्यशालाओं की। जिधर देखिये उधर कार्यशालायें।कहीं बच्चों को नाचना सिखाया जा रहा है तो कहीं गाना,कहीं ऐक्टिंग तो कहीं राइटिंग,कहीं पेन्टिंग तो कहीं क्राफ़्ट ।मतलब ये कि गर्मियां आते ही हर शहर कार्यशालामय हो उठता है।
अभी कल शाम ही मुझे भी एक ऐसी ही वर्कशाप की प्रस्तुति में बतौर दर्शक जाने का सौभाग्य मिला था।ये सौभाग्य मुझे हर साल मिलता है ।कई वर्कशाप होती हैं शहर में। आप लोगों के शहरों में भी होती ही होंगी हर शहर में गर्मी शुरू होते ही जैसे कोई वर्कशाप फ़्लू आ जाता है ।जिधर देखो उधर वर्कशाप । चाहे वो लखनऊ हो दिल्ली हो या भारत का कोई और शहर ।
भाई मजा आ गया स्टेज पर हुई प्रस्तुति देखकर।मैं देख तो रहा था स्टेज पर हो रही बच्चों की उछल कूद को लेकिन सोच रहा था उस बुद्धिमान आदमी के बारे में जिसने इन वर्कशापों को इजाद किया होगा।भाई खूब दिमाग लड़ाया होगा उसने…तभी तो इतने काम की चीज खोजी।
इन कार्यशालाओं से बच्चों का तो फ़ायदा है ही,अभिभावकों को भी बड़ा भारी लाभ मिलता है। आप पूछेंगे कैसे? भाई सीधी सी बात है … महंगाई का जमाना है । छुट्टी होते ही बच्चे हल्ला करेंगे कि पापा कहीं घुमाओ…अब इतनी महंगाई में बेचारे पापा कहां ले जायें बच्चों को। छोटी से छोटी जगह भी ले जायेंगे तो दस हजार का खर्चा।कहां से आयेगा ये पैसा?लिहाजा पांच सौ रुपया टिकाया किसी वर्कशापिये को और तीस चालीस दिनों के लिये बच्चे से फ़ुरसत ।बच्चा भी व्यस्त …वर्कशाप में … और मां बाप भी पा गये फ़ुर्सत गपबाजी करने के लिये।
लेकिन इन वर्कशापों का फ़ायदा सिर्फ़ शहरी बच्चों और मां बाप के लिये ही है…हमारे गांव की आबादी के बच्चों(जिनकी संख्या शहरी बच्चों से कई गुना ज्यादा होगी) को इन वर्कशापों का सुख नहीं नसीब होता। पता नहीं ये वर्कशापिये गांव के बच्चों को इसके योग्य नहीं समझते या फ़िर गांव के मां बाप में कोई नुस्ख है। लेकिन आप खुद सोचिये कितनी बड़ी विडम्बना है ये कि हमारे देश की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है और उन गांव के बच्चों के लिये ऐसी कोई वर्कशाप,समर कैम्प,हाबी क्लासेज …कुछ भी नहीं।
जो कुछ भी है वो सब सिर्फ़ शहरी बच्चों के लिये।उन बच्चों के लिये जिनके पास बिजली भी है,टी वी,कम्प्युटर,सिनेमाहाल,चिड़ियाघर,सर्कस,घूमने खेलने के लिये पार्क सभी कुछ है।गांवों के वो बच्चे जो किसी तरह से स्कूल तक पहुंच पाते हैं,जिनकी दुनिया सिर्फ़ और सिर्फ़ गांवों के स्कूलों और कच्ची पक्की गलियों तक ही सीमित है…क्या उनकी तरफ़ इन वर्कशापियों या समर कैम्प के आयोजकों की नजर नहीं पड़ती? सरकार के संस्कृति विभाग की ओर से इन वर्कशापों के लिये अनुदान और ग्रान्ट भी दी जाती है…बहुत सी नाट्य संस्थायें तो सरकार से यही अनुदान लेने के लिये ही बच्चों के इन समर कैम्प्स का आयोजन करती हैं…।बाकी के साल भर उनकी कोई गतिविधि नहीं दिखाई पड़ती। मेरा सिर्फ़ ये कहना है कि सांस्कृतिक कार्य विभाग क्यों नहीं इन वर्कशापियों को गांवों की तरफ़ भेजता…वहां जाकर वो लोग गांव के बच्चों के लिये भी तो कुछ काम करें।कम से कम हमारे गांवों के बच्चे भी तो जानें कि नाटक,वर्कशाप,थियेटर,पेन्टिंग,एक्जीबीशन जैसे शब्दों के माने होता क्या है?या सब कुछ शहरों तक ही सीमित रहेगा?
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हेमन्त कुमार
अभी कल शाम ही मुझे भी एक ऐसी ही वर्कशाप की प्रस्तुति में बतौर दर्शक जाने का सौभाग्य मिला था।ये सौभाग्य मुझे हर साल मिलता है ।कई वर्कशाप होती हैं शहर में। आप लोगों के शहरों में भी होती ही होंगी हर शहर में गर्मी शुरू होते ही जैसे कोई वर्कशाप फ़्लू आ जाता है ।जिधर देखो उधर वर्कशाप । चाहे वो लखनऊ हो दिल्ली हो या भारत का कोई और शहर ।
भाई मजा आ गया स्टेज पर हुई प्रस्तुति देखकर।मैं देख तो रहा था स्टेज पर हो रही बच्चों की उछल कूद को लेकिन सोच रहा था उस बुद्धिमान आदमी के बारे में जिसने इन वर्कशापों को इजाद किया होगा।भाई खूब दिमाग लड़ाया होगा उसने…तभी तो इतने काम की चीज खोजी।
इन कार्यशालाओं से बच्चों का तो फ़ायदा है ही,अभिभावकों को भी बड़ा भारी लाभ मिलता है। आप पूछेंगे कैसे? भाई सीधी सी बात है … महंगाई का जमाना है । छुट्टी होते ही बच्चे हल्ला करेंगे कि पापा कहीं घुमाओ…अब इतनी महंगाई में बेचारे पापा कहां ले जायें बच्चों को। छोटी से छोटी जगह भी ले जायेंगे तो दस हजार का खर्चा।कहां से आयेगा ये पैसा?लिहाजा पांच सौ रुपया टिकाया किसी वर्कशापिये को और तीस चालीस दिनों के लिये बच्चे से फ़ुरसत ।बच्चा भी व्यस्त …वर्कशाप में … और मां बाप भी पा गये फ़ुर्सत गपबाजी करने के लिये।
लेकिन इन वर्कशापों का फ़ायदा सिर्फ़ शहरी बच्चों और मां बाप के लिये ही है…हमारे गांव की आबादी के बच्चों(जिनकी संख्या शहरी बच्चों से कई गुना ज्यादा होगी) को इन वर्कशापों का सुख नहीं नसीब होता। पता नहीं ये वर्कशापिये गांव के बच्चों को इसके योग्य नहीं समझते या फ़िर गांव के मां बाप में कोई नुस्ख है। लेकिन आप खुद सोचिये कितनी बड़ी विडम्बना है ये कि हमारे देश की कुल आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है और उन गांव के बच्चों के लिये ऐसी कोई वर्कशाप,समर कैम्प,हाबी क्लासेज …कुछ भी नहीं।
जो कुछ भी है वो सब सिर्फ़ शहरी बच्चों के लिये।उन बच्चों के लिये जिनके पास बिजली भी है,टी वी,कम्प्युटर,सिनेमाहाल,चिड़ियाघर,सर्कस,घूमने खेलने के लिये पार्क सभी कुछ है।गांवों के वो बच्चे जो किसी तरह से स्कूल तक पहुंच पाते हैं,जिनकी दुनिया सिर्फ़ और सिर्फ़ गांवों के स्कूलों और कच्ची पक्की गलियों तक ही सीमित है…क्या उनकी तरफ़ इन वर्कशापियों या समर कैम्प के आयोजकों की नजर नहीं पड़ती? सरकार के संस्कृति विभाग की ओर से इन वर्कशापों के लिये अनुदान और ग्रान्ट भी दी जाती है…बहुत सी नाट्य संस्थायें तो सरकार से यही अनुदान लेने के लिये ही बच्चों के इन समर कैम्प्स का आयोजन करती हैं…।बाकी के साल भर उनकी कोई गतिविधि नहीं दिखाई पड़ती। मेरा सिर्फ़ ये कहना है कि सांस्कृतिक कार्य विभाग क्यों नहीं इन वर्कशापियों को गांवों की तरफ़ भेजता…वहां जाकर वो लोग गांव के बच्चों के लिये भी तो कुछ काम करें।कम से कम हमारे गांवों के बच्चे भी तो जानें कि नाटक,वर्कशाप,थियेटर,पेन्टिंग,एक्जीबीशन जैसे शब्दों के माने होता क्या है?या सब कुछ शहरों तक ही सीमित रहेगा?
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हेमन्त कुमार
8 टिप्पणियाँ:
हेमंत जी !!
बात में तो दम है आपके ......पर यह मूलभूत सुविधाओं का फर्क हर समय रहा है ......और दुर्भाग्य से हर समय बना भी रहेगा!!
हेमंत जी............ अच्छी समस्या उठाई है आपने............ पर मुझे लगता है सब पैसे का खेल है शहर से पैसे मिलते हैं तो ये वर्कशॉप वाले वहां जाते हैं...........
दुखती रग पर हाथ रख रहे हैं आप। यहां वर्कशाप तो क्या कोई शाप नहीं देख पाते।
आज डाक्टर से अपाइण्टमेण्ट था। उन्होंने कहा कि एक दिन लगा कर पूरा चेक अप करा लें। मुंह लटका कर बोलना पड़ा कि समय नहीं है! :(
बहुत सही हेमंत जी। पर भारत के कुछ चीज़ों को बदलना चाहें तो भी बदल नहीं सकते। जो लोग कोशिश करना चाहते हैं, उन्हें वहाँ की व्यवस्था ऐसा करने से रोकती है। चलिये, शहर के बच्चे ही सही, अगर कुछ सीख लें, मज़ा कर लें गर्मियों की छुट्टी के बहाने तो भी कम नहीं।
आपका ब्लॉग नित नई पोस्ट/ रचनाओं से सुवासित हो रहा है ..बधाई !!
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आयें मेरे "शब्द सृजन की ओर" भी और कुछ कहें भी....
सांस्कृतिक कार्य विभाग क्यों नहीं इन वर्कशापियों को गांवों की तरफ़ भेजता…वहां जाकर वो लोग गांव के बच्चों के लिये भी तो कुछ काम करें.....
अछे विचार हैं आपके ....देखिये शायद आपकी बात पहुँच जाये उनतक .....!!
aapne theek kaha
I agree Mamaji
Akanksha
garmi ki chhuttiya aati hai ,ek ummid lati hai,jaise garam loo chalti hai,vaise vaise workshop ka dhandha falta fulta hai,,,,kamna mumbai ,,,,
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