कहानी कहना ---कहानी सुनाना---एक कला
गुरुवार, 11 जून 2009
कहानी सुनना हर बच्चे को तो अच्छा लगता ही है।इससे बड़े भी अछूते नहीं हैं।कहानी अगर मनोरंजन का साधन है तो दूसरी ओर यह शिक्षा देने का एक जबर्दस्त औजार भी है।पूरी दुनिया में कहानियों का एक ऐसा अनोखा ,अद्भुत समुद्र है जिसमें हर बच्चा,बूढ़ा तैरना चाहता है।
हमारे देश में भी कहानियां सुनाने या किस्सागोई की एक समृद्ध परंपरा रही है।कहानी सुना कर ज्ञान देने और लोगों को शिक्षित बनाने का पहला प्रयोग पं0 विष्णु शर्मा ने अपनी पंचतंत्र की कहानियों में किया था। इसी क्रम में सिंहासन बत्तीसी,बैताल पच्चीसी,पूत बुलाकी, अलिफ़ लैला या अरेबियन नाइट्स की कहानी सुनाने की शैलियों का भी विकास हुआ।
हमारी अन्य भारतीय भाषाओं में भी कहानी सुनाने की अलग अलग शैलियों का विकास हुआ।
अकबर बीरबल की कहानियां भी इसी किस्सागोई की परंपरा में आती हैं।
यदि हम इन सभी शैलियों का विश्लेषण करें तो कहानी सुनाने के कुछ तत्व सब में दिखाई
पड़ेंगे।मसलन रोचकता,मनोरंजन,भाषा की सरलता,प्रवाह,सुनाने वाले की आवाज की विशेषता आदि। बच्चों को कहानी सुनाने की कला में कुछ विशेष बातों को ध्यान में रखना जरूरी है।
1- बाल मनोभावों की समझ:
बच्चों को कहानी सुनाने की सबसे पहली शर्त है कि कहानी सुनाने वाले को बच्चों के मनोभावों,उनकी रुचियों ,उनके ज्ञान की अच्छी समझ हो और वह खुद भी उस समय बच्चा बन जाय ,जब वह कहानी सुना रहा हो।बच्चों के साथ बैठते ही वह कुछ देर के लिये अपने बड़ेपन को
भूलकर अपने बचपन के दिनों में लौट जाय। और याद करे अपनी शरारतों,चुलबुलेपन और धमाचौकड़ियों को। कहानी सुनने वाले बच्चों के साथ कुछ देर खेले कूदे,उन्हें अपना दोस्त बनाये,
उनसे कुछ बातें करे,उनके साथ अच्छी तरह घुल मिल जाय। इससे उसे श्रोता बच्चों का मानसिक स्तर,उनके भाषा ज्ञान को समझने का अवसर मिलेगा। और उसे श्रोता बच्चों के अनुकूल कहानी का चयन करने में आसानी होगी।
2- भाषा की सरलता:
बच्चों की कहानियों की भाषा सरल,सहज एवं प्रवाहमयी होनी चाहिये। शब्द बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप हों ।जिन्हें बच्चे आसानी से समझ सकें।बच्चे यदि किसी विशेष क्षेत्र के हों तो वहां की स्थानीय बोली के शब्दों को भी कहानी में शामिल करने की कोशिश करनी चाहिये। कहानी के वाक्य जहां तक संभव हो छोटे छोटे बनाने चाहिये,जिन्हें बच्चे आसानी से समझ सकें।यदि कहानी में स्थानीय कहावतों और मुहावरों का इस्तेमाल करें तो ये बच्चों को अतिरिक्त लाभ पहुंचायेगा।(लेकिन ये मुहावरे या कहावतें कहानी में सहज रूप में आयें,अलग से थोपे हुये न लगें।)
कहानी सुनाते समय हमें यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिये कि हम कहानी सुनाने के साथ ही कहीं न कहीं परोक्ष रूप से बच्चों को भाषा का ज्ञान भी देते चलते हैं।
3-समसामयिकता:
कहानी का चुनाव बच्चों के परिवेश ,उनके रहन सहन और परिवेश के अनुकूल करें।इसके लिये आप कहानी सुनाने से पहले बच्चों से उनकी राय भी ले सकते हैं कि आज वे किस तरह की कहानी सुनना चाहते हैं? मसलन जानवरों की,परियों की,भूतों की,कोई विज्ञान कथा या फ़िर किसी सच्ची घटना पर अधारित कहानी।
एक बात और ,यदि आप कोई पौराणिक या पंचतंत्र आदि की कहानी सुनाने जा रहे हैं तो उसे भी आज के सन्दर्भों से जोड़ कर बच्चों को सुनाना एक अच्छी कोशिश होगी। और बच्चे इसमें रुचि भी ज्यादा लेंगे।
4- रोमांचकता:
बच्चों की कहानी में यदि रोमंचकता का तत्व न हो तो वह कहानी ही कैसी ?
यह कहना है बच्चों के प्रतिष्ठित कहानीकार श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी का।मैं भी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं।जब तक बच्चों की कहानी में --- अरे ये कैसे हुआ?----अरे अचानक ये कहां से टपक गया?------देखो अब आगे क्या होता है? जैसे प्रश्न न उठें,बच्चों के चेहरे रोमांचित न हों,उनकी आंखें बीच बीच में विस्मय से फ़ैल न जायें ,तब तक भला वह बच्चों की कहानी कहां से कही जा सकती है।
5-उत्सुकता:
उत्सुकता का तत्व भी रोमांचकता से जुड़ा हुआ ही है।बच्चों की कहानी में अगर कहानी सुनाने वाले के हर वाक्य के बाद बच्चों के अंदर ---अब आगे क्या होने वाला है?---अमुक व्यक्ति अब क्या करेगा?----जैसे प्रश्न यदि नहीं उठते हैं तो मेरे विचार से वो कहानी पूरी तरह से फ़्लाप मानी जायेगी। वह कहानी बच्चों को कुछ भी देने में सफ़ल नहीं हो सकतीं। न मनोरंजन न सीख। अब ये उत्सुकता न जगा पाना कहानीकार की असफ़लता भी हो सकती है या फ़िर कहानी सुनाने वाले की शैली की।
कहानी सुनाने वाला यदि कुशल कथावाचक है तो वह एक फ़्लाप कहानी से भी बच्चों का मनोरंजन कर सकता है।ठीक उसी तरह से जैसे एक कुशल निर्देशक किसी समान्य कहानी पर भी सुपरहिट फ़िल्म बना सकता है।
6-कहानी मनोरंजन के लिये ,उपदेश या सीख के लिये नहीं:
मेरे हिसाब से बच्चों को वही कहानी अच्छी तरह बांधे रख सकती है,जो सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चों के मनोरंजन के लिये लिखी गयी हो।कहानी सुनाते समय जहां आप बच्चों को उपदेश या सीख देने की कोशिश करेंगे वहीं कहानी का बंटाधार हो जयेगा। बच्चों को जम्हायी आने लगेगी ,किसी को लघु शंका लग जायेगी तो कोई पानी पीने का बहाना ढूंढ़ लेगा----यानि कि आपकी कथा पंचायत भंग। इसलिये बच्चों को कहानी सिर्फ़ मनोरंजन ,आनंद ,खेल के लिये सुनायें।उपदेश देने के लिये नहीं।यहां मेरे कहने का यह मतलब कदापि नहीं कि कहानी में सीख नहीं हो सकती,हो सकती है पर अपने आप कहानी में आई हुई। अलग से थोपी हुई नहीं।
ये तो कुछ मुख्य बिन्दु थे जिन पर बच्चों को कहानी सुनाते समय जरूर ध्यान देना ही चाहिये। अब आती है बात कहानी सुनाने के तरीकों की ---तो इन पर मैं अपने अगले लेख में चर्चा करूंगा।
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हेमन्त कुमार
हमारे देश में भी कहानियां सुनाने या किस्सागोई की एक समृद्ध परंपरा रही है।कहानी सुना कर ज्ञान देने और लोगों को शिक्षित बनाने का पहला प्रयोग पं0 विष्णु शर्मा ने अपनी पंचतंत्र की कहानियों में किया था। इसी क्रम में सिंहासन बत्तीसी,बैताल पच्चीसी,पूत बुलाकी, अलिफ़ लैला या अरेबियन नाइट्स की कहानी सुनाने की शैलियों का भी विकास हुआ।
हमारी अन्य भारतीय भाषाओं में भी कहानी सुनाने की अलग अलग शैलियों का विकास हुआ।
अकबर बीरबल की कहानियां भी इसी किस्सागोई की परंपरा में आती हैं।
यदि हम इन सभी शैलियों का विश्लेषण करें तो कहानी सुनाने के कुछ तत्व सब में दिखाई
पड़ेंगे।मसलन रोचकता,मनोरंजन,भाषा की सरलता,प्रवाह,सुनाने वाले की आवाज की विशेषता आदि। बच्चों को कहानी सुनाने की कला में कुछ विशेष बातों को ध्यान में रखना जरूरी है।
1- बाल मनोभावों की समझ:
बच्चों को कहानी सुनाने की सबसे पहली शर्त है कि कहानी सुनाने वाले को बच्चों के मनोभावों,उनकी रुचियों ,उनके ज्ञान की अच्छी समझ हो और वह खुद भी उस समय बच्चा बन जाय ,जब वह कहानी सुना रहा हो।बच्चों के साथ बैठते ही वह कुछ देर के लिये अपने बड़ेपन को
भूलकर अपने बचपन के दिनों में लौट जाय। और याद करे अपनी शरारतों,चुलबुलेपन और धमाचौकड़ियों को। कहानी सुनने वाले बच्चों के साथ कुछ देर खेले कूदे,उन्हें अपना दोस्त बनाये,
उनसे कुछ बातें करे,उनके साथ अच्छी तरह घुल मिल जाय। इससे उसे श्रोता बच्चों का मानसिक स्तर,उनके भाषा ज्ञान को समझने का अवसर मिलेगा। और उसे श्रोता बच्चों के अनुकूल कहानी का चयन करने में आसानी होगी।
2- भाषा की सरलता:
बच्चों की कहानियों की भाषा सरल,सहज एवं प्रवाहमयी होनी चाहिये। शब्द बच्चों के मानसिक स्तर के अनुरूप हों ।जिन्हें बच्चे आसानी से समझ सकें।बच्चे यदि किसी विशेष क्षेत्र के हों तो वहां की स्थानीय बोली के शब्दों को भी कहानी में शामिल करने की कोशिश करनी चाहिये। कहानी के वाक्य जहां तक संभव हो छोटे छोटे बनाने चाहिये,जिन्हें बच्चे आसानी से समझ सकें।यदि कहानी में स्थानीय कहावतों और मुहावरों का इस्तेमाल करें तो ये बच्चों को अतिरिक्त लाभ पहुंचायेगा।(लेकिन ये मुहावरे या कहावतें कहानी में सहज रूप में आयें,अलग से थोपे हुये न लगें।)
कहानी सुनाते समय हमें यह बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिये कि हम कहानी सुनाने के साथ ही कहीं न कहीं परोक्ष रूप से बच्चों को भाषा का ज्ञान भी देते चलते हैं।
3-समसामयिकता:
कहानी का चुनाव बच्चों के परिवेश ,उनके रहन सहन और परिवेश के अनुकूल करें।इसके लिये आप कहानी सुनाने से पहले बच्चों से उनकी राय भी ले सकते हैं कि आज वे किस तरह की कहानी सुनना चाहते हैं? मसलन जानवरों की,परियों की,भूतों की,कोई विज्ञान कथा या फ़िर किसी सच्ची घटना पर अधारित कहानी।
एक बात और ,यदि आप कोई पौराणिक या पंचतंत्र आदि की कहानी सुनाने जा रहे हैं तो उसे भी आज के सन्दर्भों से जोड़ कर बच्चों को सुनाना एक अच्छी कोशिश होगी। और बच्चे इसमें रुचि भी ज्यादा लेंगे।
4- रोमांचकता:
बच्चों की कहानी में यदि रोमंचकता का तत्व न हो तो वह कहानी ही कैसी ?
यह कहना है बच्चों के प्रतिष्ठित कहानीकार श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी का।मैं भी इस बात से पूरी तरह सहमत हूं।जब तक बच्चों की कहानी में --- अरे ये कैसे हुआ?----अरे अचानक ये कहां से टपक गया?------देखो अब आगे क्या होता है? जैसे प्रश्न न उठें,बच्चों के चेहरे रोमांचित न हों,उनकी आंखें बीच बीच में विस्मय से फ़ैल न जायें ,तब तक भला वह बच्चों की कहानी कहां से कही जा सकती है।
5-उत्सुकता:
उत्सुकता का तत्व भी रोमांचकता से जुड़ा हुआ ही है।बच्चों की कहानी में अगर कहानी सुनाने वाले के हर वाक्य के बाद बच्चों के अंदर ---अब आगे क्या होने वाला है?---अमुक व्यक्ति अब क्या करेगा?----जैसे प्रश्न यदि नहीं उठते हैं तो मेरे विचार से वो कहानी पूरी तरह से फ़्लाप मानी जायेगी। वह कहानी बच्चों को कुछ भी देने में सफ़ल नहीं हो सकतीं। न मनोरंजन न सीख। अब ये उत्सुकता न जगा पाना कहानीकार की असफ़लता भी हो सकती है या फ़िर कहानी सुनाने वाले की शैली की।
कहानी सुनाने वाला यदि कुशल कथावाचक है तो वह एक फ़्लाप कहानी से भी बच्चों का मनोरंजन कर सकता है।ठीक उसी तरह से जैसे एक कुशल निर्देशक किसी समान्य कहानी पर भी सुपरहिट फ़िल्म बना सकता है।
6-कहानी मनोरंजन के लिये ,उपदेश या सीख के लिये नहीं:
मेरे हिसाब से बच्चों को वही कहानी अच्छी तरह बांधे रख सकती है,जो सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चों के मनोरंजन के लिये लिखी गयी हो।कहानी सुनाते समय जहां आप बच्चों को उपदेश या सीख देने की कोशिश करेंगे वहीं कहानी का बंटाधार हो जयेगा। बच्चों को जम्हायी आने लगेगी ,किसी को लघु शंका लग जायेगी तो कोई पानी पीने का बहाना ढूंढ़ लेगा----यानि कि आपकी कथा पंचायत भंग। इसलिये बच्चों को कहानी सिर्फ़ मनोरंजन ,आनंद ,खेल के लिये सुनायें।उपदेश देने के लिये नहीं।यहां मेरे कहने का यह मतलब कदापि नहीं कि कहानी में सीख नहीं हो सकती,हो सकती है पर अपने आप कहानी में आई हुई। अलग से थोपी हुई नहीं।
ये तो कुछ मुख्य बिन्दु थे जिन पर बच्चों को कहानी सुनाते समय जरूर ध्यान देना ही चाहिये। अब आती है बात कहानी सुनाने के तरीकों की ---तो इन पर मैं अपने अगले लेख में चर्चा करूंगा।
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हेमन्त कुमार
4 टिप्पणियाँ:
सुन्दर चर्चा है हेमंत जी .......... आपकी बात सही है कहानी में रोचकता बनी रहनी चाहिए
बहुत सही कहा,कहानी कहने और सुनने की कला होती है,रोमांचक ढंग से हो तो बड़े भी बंध जाते हैं....
' कहने का यह मतलब कदापि नहीं कि कहानी में सीख नहीं हो सकती,हो सकती है पर अपने आप कहानी में आई हुई। अलग से थोपी हुई नहीं।'
- बच्चों की कहानी में 'सीख' का यह तत्व जरूर होना चाहिए
सही है !! कहानियां हमारी शिक्षण व्यवस्था का जरूरी अंग बनी रहनी चाहिए!!
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