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पहाडों के बीच

रविवार, 22 मार्च 2009


काले पहाडों के बीच
खड़ा है
आदमियों का एक लंबा हुजूम
पागल आदमियों का हुजूम।

हर व्यक्ति
कोशिश कर रहा है
अपनी ऊँचाई को नापने की
अपने बौनेपन को भूल कर।

हर आदमी फैला रहा है
अपने हाथों को
कभी ऊपर कभी नीचे
झटक रहा है
अपने पांवों को
कभी दांये कभी बांये।

खींच रहा है अपने
स्नायुओं को
फुला रहा है अपनी
मांसपेशियों को
छोड़ रहा है अपनी साँस को
कभी तेज कभी धीमी गति से
अपने शरीर को फैलाने के लिए।

वह भूल गया है कि
इन पहाडों के पीछे
कितने और भी पहाड़ हैं
जिनकी ऊंचाइयों को
नापने के लिए
पहले उसे
अपने स्वयं के
बौनेपन को पहचानना होगा।

देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को
इन ऊंचे पहाडों जैसी।
-------
हेमंत कुमार

11 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... 22 मार्च 2009 को 11:19 am बजे  

देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई....bahut badhiyaa

बेनामी,  23 मार्च 2009 को 12:58 am बजे  

अच्‍छी कविता। पंक्तियां विशेष पसंद आईं--
वह भूल गया है कि
इन पहाड़ों के पीछे
कितने और भी पहाड़ हैं
जिनकी उंचाइयों को
नापने के लिए
पहले उसे
अपने स्‍वयं के
बौनेपन को पहचानना होगा

दिगम्बर नासवा 23 मार्च 2009 को 7:00 am बजे  

हेमंत जी
बहूत खूब लिखा है. इंसान अपमे को नहीं देखता बस.....आने अहम् में अपने सिवा किसी को नहीं देखता
सुन्दर रचना

hem pandey 24 मार्च 2009 को 12:15 am बजे  

'देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को'
- सुंदर.साधुवाद.

hem pandey 24 मार्च 2009 को 12:16 am बजे  

'देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को'
- सुंदर.साधुवाद.

बेनामी,  25 मार्च 2009 को 10:31 am बजे  

हेमंत जी नमस्कार! आज से अपना रिश्ता एक ब्लोगर से अधिक हो गया.

हरकीरत ' हीर' 25 मार्च 2009 को 8:52 pm बजे  

वह भूल गया है कि
इन पहाडों के पीछे
कितने और भी पहाड़ हैं
जिनकी ऊंचाइयों को
नापने के लिए
पहले उसे
अपने स्वयं के
बौनेपन को पहचानना होगा।

देखना होगा झांक कर
अपने स्वयं के अन्दर
देना होगा विस्तार
देनी होगी ऊँचाई
अपने बौनेपन और
संकुचित दृष्टिकोणों को
सिद्धांतों को
इन ऊंचे पहाडों जैसी।

Waah bhot acche bhav liye hue kavya.rachna....divyadristi ki baat....bhot khoob....!!

shama 27 मार्च 2009 को 2:51 am बजे  

Hemant ji,
Mai behad sharm saar hun, apnee galateeki maafee chahtee hun...
Hindi kamzor to nahee, lekin, haan, us din meree tabiyat kaafee kharab thee....shayd isiliye galati ho gayi...phir ekbaar kshamaprarthi hun...
Wiase asal baat ye hai ki, wo reply aapko nahee kisee aurko dena chah rahee thee, jahan sach me istarahkaa confusion tha......aapki postpe likh diya....uskaabhi karan kharab tabiyathee hai...aap bade manse maaf karenge to shukrguzaar rahungee...

Harshvardhan 30 मार्च 2009 को 4:14 am बजे  

sabdo ko sahi se pirokar itni sundar abhivayakti ki hai aapne...

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