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पारिवारिक रिश्तों के बुनावट की कहानियां “एक तलाश अधूरी सी ” ।

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

 

पुस्तक समीक्षा

पारिवारिक रिश्तों के बुनावट की कहानियां “एक तलाश अधूरी सी ”

          



                   

                    

                   पुस्तक : एक तलाश अधूरी सी



(कहानी संग्रह)



लेखिका :डा०कविता श्रीवास्तव



प्रकाशक :न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन



सी-515,बुद्ध नगर,इन्द्रपुरी



नई दिल्ली-110012

                



डा०कविता श्रीवास्तव का यह प्रिंट रूप में पहला कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है।वैसे तो वो पिछले लगभग चार दशकों से आकाशवाणी इलाहाबाद के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए कहानियां लिख रही हैं।लेकिन उन्होंने अभी तक इन कहानियों को कभी प्रकाशित करवाने का प्रयास नहीं किया था।परिवार के सदस्यों के द्वारा काफी कहने पर उन्होंने ये कहानियां संकलन के लिए दिया ।कारण जो भी रहा हो अब उनका यह संग्रह आ चुका है और उसका साहित्य जगत में स्वागत होना ही चाहिए।

    


बताता चलूं कि कविता श्रीवास्तव मूल रूप से गणितज्ञ हैं और उन्होंने इलाहाबाद के कुलाभास्कर डिग्री कालेज में लगभग तीन दशक तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात सेवानिवृत्त हुई हैं।

  


“एक तलाश अधूरी सी” कहानी संग्रह में डा०कविता श्रीवास्तव की कुल 15कहानियां संकलित हैं।“विडम्बना”,“एक अनकहा दर्द”,“अपराध बोध”,“एक तलाश अधूरी सी”,“हौसलों के पंख”,“तमाशा”,“अस्तित्व”,“क्यों नहीं बजता अब कोई फोन”,“नीड़”,“दर्द से सुकून तक”,“कैनवास जिन्दगी का”,“एक मुट्ठी धूप”, “दूरियां-नजदीकियां”,“एक नई इबारत”,“फैसला” ।



इन कहानियों का सम्यक रूप से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि डा०कविता श्रीवास्तव मुख्य रूप से पारिवारिक रिश्तों,रिश्तों में आ रही दरारों,रिश्तों में समाप्त होती जा रही गर्माहट,सामजिक और मानवीय मूल्यों के विघटन की कथाकार हैं।इन्होंने अपने कहानी संग्रह की शुरुआत में ही “अपनी बात” में लिखा भी है –“कहानियां,जैसा मैं समझती हूं हमारी-आपकी,इनकी-उनकी जिन्दगी के अलग-अलग रंगों का अंकन होती हैं।ये कहीं अलग से नहीं आती । ये तो हमारे आपके बीच से ही पनपती हैं ।सच तो यह है कि हर व्यक्ति अपने आप में जाने कितनी कहानियां समेटे होता है ।इन्हें हम देखते हैं,सुनते हैं,समझते हैं और साझा भी करते हैं ।इसी प्रक्रिया में जब कोई इन्हें महसूस करके,यथार्थ और कल्पना के धागों में पिरो,भावनाओं-संवेदनाओं के रंगों से सजाकर कलमबद्ध करता है,तो जन्म होता है एक कहानी का ।”(एक तलाश अधूरी सी -पृष्ठ-7)

    


वैसे तो इनके इस संग्रह में सभी कहानियां बेहतरीन और पठनीय हैं जो पाठकों से संवाद करती हुई चलती हैं ।लेकिन कुछ कहानियों का उल्लेख यहां विशेष रूप से किया जाना जरूरी है जिससे इस कहानी संग्रह की तासीर या कहें रुख का पता चल सकता है ।



संग्रह की पहली ही कहानी “विडम्बना”की बात अगर हम करें तो उसमें दो वर्गों का प्रतिनिधित्व हमें दिखाई देता है ।एक निचले तबके का और दूसरा मध्य वर्ग का ।निचले तबके का प्रतिनिधित्व  बढ़ई बिरजू कर रहा और मध्य वर्ग का एक कार वाला परिवार ।दोनों ही वर्गों के परिवारों की अपनी मजबूरियां हैं ।दोनों परिवार के पिताओं की अपनी जरूरत है,जिसके इर्द-गिर्द इस कहानी का ताना बाना बुना गया है ।बढ़ई बिरजू गाँव घर छोड़ कर शहर में अपने हुनर से कुछ पैसा कमा कर परिवार का पेट पालने आया है ।उसकी झोपड़ी के सामने एक दिन एक चमचमाती कार रूकती है और उसका मालिक आकर उसके पास में ही खेल रहे छोटे बच्चे की तीन पहिये वाली लकड़ी की गाड़ी का दाम पूछता है । बिरजू उससे कहता भी है कि यह गाडी तो बहुत पुरानी है वह उनके लिए दूसरी नई गाड़ी बना देगा।लेकिन वो व्यक्ति उसी समय वही गाड़ी लेना चाहता था । बिरजू उसका दाम तीन सौ कहता है तो वह व्यक्ति तुरंत उसके हाथ पर तीन सौ रुपये रख देता है ।लेकिन उसका छोटा बच्चा गाड़ी न देने की जिद पकड़ लेता है ।उधर जब उस व्यक्ति से पता चलता है कि उसका बेटा चार साल का हो चुका है और किसी बीमारी के कारण अभी भी वो खड़ा भी नहीं हो सकता । तो बिरजू अपने रो रहे बच्चे से गाड़ी छीन कर उसे पकड़ा देता है और वो लोग चले जाते हैं ।

     


मात्र इतनी छोटी सी घटना को लेकर लेखिका ने जितनी खूबसूरती से इस कहानी का ताना बाना बुना है वह काबिले तारीफ़ है ।दोनों पिताओं की अपनी मजबूरियां हैं ।मध्यवर्गीय (कार वाले )पिता की मजबूरी कि उसका बेटा किसी तरह गाड़ी के सहारे खडा होकर चलने लगे ।उसकी विडम्बना ये है कि इतना धन दौलत पास में होने के बावजूद उसका बच्चा चल नहीं सकता ।वहीं दूसरी तरफ बिरजू की मजबूरी यह कि उसने सिर्फ कुछ रुपयों के लालच में अपने प्यारे बेटे की प्यारी गाड़ी बेच दी ।

     


इसी संकलन की दूसरी कहानी है “अपराध बोध” ।इस कहानी में एक परिवार में वृद्ध व्यक्ति के अकेलेपन और उसके नौकरी पेशा बेटे से उसके वैचारिक और मानसिक अंतर्विरोधों को बखूबी दर्शाया गया है ।वृद्ध केशव प्रसाद वर्मा की पत्नी का निधन हो चुका है और वो दूसरे शहर में नौकरी करने वाले अपने बेटे के परिवार के साथ रहने लगते हैं ।सर्दियों के दिन में किसी दिन बिस्तर पर बैठे बैठे चाय पीते समय उनके हाथों से चाय बिस्तर पर गिर जाती है ।इस पर उनका बेटा उन्हें ताने देता है और खरी खोटी सुना देता है । यद्यपि उसकी पत्नी और बच्चे उसे आफिस भेज कर बिस्तर सुखा देते हैं लेकिन केशव वर्मा जी के अंदर यह घटना एक अपराध बोध बन कर ठहर सी जाती है ।



वृद्ध केशव वर्मा की मानसिक पीड़ा और उदासी को लेखिका ने बहुत खूबसूरती के साथ इन शब्दों में व्यक्त किया है—“चाय पीते प्रकट में सहज दिख रहे बाबू जी का मन उदास था ।यह पहली बार था कि बाबू जी यहां बेटे के घर आए थे और पत्नी साथ नहीं थी ।यहां क्या उनकी पत्नी का साथ हमेशा हमेशा के लिए छूट गया था ।-----सो अब उनका साथ न होना पल-पल ही सता रहा था बाबू जी को ।”(पृष्ठ-24)

     


वृद्ध केशव प्रसाद की पीड़ा,अकेलेपन और पत्नी से बिछुड़ जाने के दर्द को लेखिका ने इन शब्दों में व्यक्त किया है—“धूप अच्छी निकल आई थी ।पर उनके संतप्त मन को यह गुनगुनी धूप भी सुकून न दे सकी ।बार-बार आंखें भर आ रही थीं ।याद आ रहा था अपना घर ।पत्नी की बहुत-बहुत याद आ रही थी --- ।”(पृष्ठ-27)

   


यह दरअसल एक अकेले केशव प्रसाद वर्मा की ही कहानी नहीं है ।उस पात्र के माध्यम से लेखिका ने हमारे समाज के लाखों ,करोड़ों परिवारों में रहने वाले एकाकी अथवा पत्नी के साथ रह रहे बुजुर्गों की पीड़ा,मानसिक अवसाद और संत्रास को अभिव्यक्ति दी है ।

 


इसी तरह यहां मैं लेखिका की एक और कहानी का उल्लेख करना चाहूँगा । जिसमें दिखाया गया है कि आज भौतिकता की अंधी दौड़ में कोई व्यक्ति किस हद तक गिर सकता है ।इस कहानी का शीर्षक है “अस्तित्व” ।कहानी एक पति रजत और पत्नी हेमा की है ।रजत एक बेहद महत्वाकांक्षी व्यक्ति है।पैसा, नौकरी,नौकरी में प्रमोशन की उसके अन्दर इतनी बड़ी महत्वाकांक्षा है कि वह एक दिन अपने बॉस को घर पर डिनर के लिए बुलाता है और अपनी पत्नी हेमा को अपने बॉस के सामने परोसने की कोशिश करता है ।अब मानवीय रिश्तों और मानवीय मूल्यों का इससे बड़ा पतन ,यथार्थ और क्या हो सकता है कि एक पति अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने अधिकारी से अपनी पत्नी को शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करने की कोशिश करता है ।मजबूर पत्नी के सारे दर्द और फ्रस्ट्रेशन को लेखिका ने कहानी के अंत में कुछ इस प्रकार दर्ज किया है--- “रजत ने उसे झिंझोड़ा तो झटक दिया उसने रजत का हाथ ।---शेरनी सी बिफर पड़ी वह –हाथ मत लगाना मुझे तुम । शर्म आ  रही है कि तुम मेरे पति हो ।मेरे रक्षक।सौदा कर डाला तुमने मेरा । धिक्कार है तुम्हें ---”कहती हुई हेमा रो पड़ी ।उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी ।इन आंसुओं में दर्द था,पीड़ा थी,अथाह व्यथा थी ।पर इन्हीं आंसुओं में जन्म ले रही थी उसके अंतर में सोई पड़ी वह शक्ति जो उसे अपने अस्तित्व को चुनौती देने वाले हर प्रहार को परास्त करने का हौसला दे रही थी ।”(पृष्ठ-51)

    


जैसा मैंने ऊपर शुरू में ही कहा है कि डा० कविता श्रीवास्तव मुख्य रूप से पारिवारिक रिश्तों,रिश्तों में आ रही खटास ,परिवारों में दरक रहे रिश्तों की रचनाकार हैं ।उनकी हर कहानी हमारे सामने परिवार और उसके विघटन,रिश्तों की दरारों को जिस खूबसूरती के साथ पेश करती है वह अद्भुत है ।हर कहानी अपने में एक अलग ढंग से पारिवारिक रिश्तों के इस विघटन को रेखांकित करती है ।इस दृष्टि से इनकी हर कहानी बेजोड़ है ।

   


जहां तक भाषा और शैली का प्रश्न है।इन कहानियों की भाषा इतनी सरल, सहज और प्रवाहमय है,साथ ही हर कहानी की बुनावट और कहन का ढंग इतना अद्भुत है जो निश्चित ही पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करेगा और उन्हें बाँध कर रखेगा ।

   


एक बात अवश्य मैं जो कविता श्रीवास्तव का पहला कहानी संग्रह होने के नाते -- उन्हें एक सलाह के तौर पर देना चाहूँगा -- वो यह कि परिवार और रिश्तों के विघटन के साथ ही हमारे समाज में और भी बहुत कुछ घटित हो रहा है –मसलन—विश्वविद्यालयों की राजनीति,अध्यापकों की खेमेबाजी,देश की दलगत राजनीति और वर्त्तमान राजनीतिज्ञों के चेहरों पर लगे तरह तरह के मुखौटे ...एक नहीं अनेकों तरह के—धार्मिक,राजनैतिक,सामाजिक ।भ्रष्टाचार में लिप्त अदृश्य मुखौटे भी---या ऐसे ही और भी बहुत से विषय हो सकते हैं कहानियों के ।इन विषयों पर भी वो अपनी कलम चलाएं तो हिंदी कथा साहित्य को निश्चित रूप से वो एक नई दिशा प्रदान कर सकने में पूरी तरह सक्षम होंगी ।

                      


०००००



समीक्षक : हेमन्त कुमार



लेखिका :डा० कविता श्रीवास्तव 



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यादें झीनी झीनी रे----।

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

 

    (आज 31 जुलाई को मेरे पिता जी प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार आदरणीय प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की पुण्य तिथि है।2016 की 31 जुलाई को ही 87 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।मेरे बड़े भाई तुल्य प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार आदरणीय कौशल पाण्डेय जी का यह बेहद आत्मीय संस्मरण ”बालवाटिका” के श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव पर केन्द्रित मार्च-2019 अंक में प्रकाशित हुआ था।आज इसे अपने ब्लॉग क्रिएटिवकोना पर मैं पुनः प्रकाशित कर रहा हूं।डा०हेमन्त कुमार)  

 

                                                               

आदरणीय पिताजी और अम्मा 

आत्मीय संस्मरण





यादें झीनी झीनी रे----



लेखक-कौशल पाण्डेय

         


दिसंबर 1985 के अंतिम सप्ताह की एक सर्द भारी शाममैं इलाहाबाद के अल्लापुर मोहल्ले की भूल-भुलैया जैसी गलियों में अपने एक मित्र के साथ एक पर्ची पर लिखे पते को तलाश रहा था।उस पर लिखा था श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव,90-ए/17एस,बाघम्बरी गद्दी के पीछे,(अल्लापुर)इलाहाबाद।और यह पर्ची देने वाले थे आकाशवाणी इलाहाबाद में मेरे सहयोगी राम पाण्डेय।दरअसल मुझे आकाशवाणी इलाहबाद में ज्वाइन किये करीब एक वर्ष हो चुका था,पर जिस घर में मैं किराए पर रह रहा था वह काफी बंद-बंद सा था।मुझे एक ऐसे घर की तलाश थी जहां हवा और धूप का खुलकर सेवन कर सकूं।यह बात जब मैंने अपने सहयोगी राम पाण्डेय को बताई तो राम पाण्डेय ने मुझसे एक दिन कहा कि, “मैं एक घर का पता दे रहा आप जा कर देख लीजिये।”बस मैं मकान की खोज में निकल पड़ा था।बेतरतीब नंबरों वाले मोहल्ले में भी नाम बताने पर घर आसानी से मिल गया।दरवाजा खटखटाया तो अन्दर से एक दुबले पतले और थोड़ा लम्बे व्यक्ति ने जब दरवाजा खोला तो मैंने अपनी बात बताई।वह श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव से मेरी पहली मुलाक़ात थी।उन्होंने घर का वह ऊपरी हिस्सा दिखाया जो उन्हें किराए पर देना था।चाय पिलाई और अपने परिवार के बारे में बताया तथा मेरे परिवार के बारे में जानकारी ली।साथ ही एक दिन सोचने का मौक़ा भी माँगा। संभवतः वह राम पाण्डेय से मेरे बारे में और विस्तार से जानना चाहते होंगे।अगले ही दिन वह सुबह-सुबह राम पाण्डेय से घर पर मिलते हुए बाद में मेरे पास दफ्तर आये और बोले कि, “आप जिस दिन चाहें सामान लेकर रहने आ जाएं।”

   


अगले दिन मैं पत्नी और बच्चों को घर दिखाने ले गया।पत्नी की ओर से थोड़ी ना-नुकुर हुई कि घर मुख्य सड़क से काफी अन्दर है।अंततःघर का खुलापन और घर के लोगों का सरल स्वभाव इस एक पर भारी पड़ा और हम लोग एक सप्ताह बाद ही वहां शिफ्ट हो गए।5,जनवरी 1986 को मेरा इलाहाबाद का स्थानीय पता हो गया---श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव का मकान,बाघम्बरी गद्दी के पीछे...जो कि मेरे इलाहाबाद छोड़ने तक बराबर बना रहा।यहाँ तक कि अगस्त-1990 में इलाहाबाद से मुंबई स्थानान्तरण के करीब दो वर्ष बाद तक भी।इस दौरान मैं मुंबई रहा और मेरा परिवार अकेले इलाहाबाद में।उन दिनों वो ऊ०प्र० सरकार के राज्य शिक्षा संस्थान में शोध प्राध्यापक थे और आकाशवाणी के नियमित नाटककार।बाद में पता चला कि उनके लेखन की शुरुआत पचास के दशक में ‘धर्मयुग’और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में कहानियां लिखने से हुयी थी।और फिर धीरे-धीरे यह भी पता चला कि वो जितने बड़े रेडियो नाटककार हैं उससे भी कहीं ज्यादा योगदान उनका बाल साहित्य लेखन में है।वो बहुत संकोची स्वभाव के थे।इसीलिए प्रायः अपने लेखन के बारे में चर्चा कम ही करते थे।लगभग तीन सौ रेडियो नाटक और पचास के करीब बाल साहित्य की पुस्तकें लिखने के बावजूद—मैंने कभी यह नहीं सुना या देखा कि उन्होंने कभी किसी से अपनी किताबों पर समीक्षा या चर्चा करने को कहा हो।रडियो की नौकरी के नाते मैं उन्हें केवल रेडियो नाटककार के रूप में ही जानता था।उनके तमाम नाटक आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारण का हिस्सा रहे।सुप्रसिद्ध नाटककार और आकाशवाणी के तत्कालीन महानिदेशक स्व० जगदीश चन्द्र माथुर का वह पत्र भी मैंने उनकी पुरानी फ़ाइल में देखा जिसके द्वारा उन्होंने इनसे रेडियो के लिए लिखते रहने का अनुरोध किया था।

   


उन्होंने शिक्षा विभाग में हिन्दी प्रवक्ता के रूप में नौकरी की शुरुआत की थी।बाद में 1964 में शिक्षा प्रसार विभाग में पहले प्रचार अधिकारी फिर पटकथा लेखक हुए।और करीब दो-ढाई सौ वृत्त चित्रों के लिए पटकथाएं लिखीं।सेवानिवृत्त होने के कुछ समय पहले वह प्राथमिक कक्षाओं की हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के निर्माण कार्य से भी जुड़े थे।बाद में भी कई वर्षों तक वह इस कार्य से जुड़े रहे।

       


उनकी देखा-देखी मैंने भी उन्हीं दिनों बच्चों के लिए लिखना शुरू किया।खूब बाल कवितायेँ लिखीं।मेरी कवितायेँ पराग,बाल भारती,बालहंस,दैनिक जागरण में खूब छपीं।उन्होंने मेरी हर कविता पढी,सराहा,पर कमी निकालने के भाव से या कभी संशोधन करने के लिए नहीं कहा।सच पूछा जाय तो मैं आज तक उन रिश्तों को कोई नाम नहीं दे पाया जो उनके घर में रहते हुए मेरे और उनके बीच तथा उनके घर के अन्य सदस्यों के बीच पनपे।अम्मा जी के सरल स्वभाव ने कभी भी हम दोनों को माँ,और बच्चों को दादी की कमी खलने नहीं दिया।अनायास ही मैं उस परिवार का सबसे बड़ा भाई बन गया।डा०मुकुल,डा०हेमन्त,डा०कविता और सबसे छोटी अलका सभी मेरे बच्चों के प्रिय चाचा और बुआ।और हम दोनों सबके भैया-भाभी।इन सभी की शादियों में सारे रीति-रिवाजों के साथ परिवार की तरह सहभागिता रही हम सभी की।

      


घर में सब की ही तरह श्रीवास्तव जी को मैं भी भाई कहता था पर राय- मशविरे के समय वे मुझे सबसे करीबी मित्र की तरह काम आते थे। और किसी समस्या के समय पिता की ही तरह मैं उनका हाथ अपने कंधे पर रखा हुआ पाता था।अगस्त 1990 में उनके घर में रहते हुए मेरा स्थानान्तरण इलाहाबाद से मुंबई हो गया।मैं जाना नहीं चाहता था,पर काफी प्रयासों के बाद न तो मेरा स्थानान्तरण निरस्त हुआ और न ही स्थान बदला गया।मैं अकेले ही दुखी मन से मुम्बई गया।बच्चे बहुत छोटे थे।मुम्बई में परिवार रखने लायक आवास की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी।इसके करीब डेढ़-पौने दो बरस तक मेरा परिवार उन्हीं के घर में इलाहाबद में ही रहा।परिवार की देख-भाल के लिए मैं हर डेढ़-दो महीने पर इलाहाबाद आता था।कभी ऐसा नहीं हुआ कि वे मुझे स्कूटर से स्टेशन छोड़ने न गए हों।हर बार कंधे पर रखा उनके आश्वासन का हाथ मुझे मुम्बई में बराबर यह तसल्ली देता था कि इलाहाबाद में मेरे परिवार को कोई भी दिक्कत उनके रहते नहीं आयेगी।यह धर्म उनहोंने मेरी गैर मौजूदगी में हमेशा निभाया।अंततः जून 1992 में मैंने वह घर खाली कर दिया।

   


बाद में 1996 से 2000 तक पुनः इलाहाबाद रहा पर अकेले ही।उनका बराबर आग्रह रहा कि मैं उनके घर कभी भी रहने आ सकता हूं।पर ऐसा हो नहीं पाया।हाँ ये जरूर है कि उनसे मेरा बराबर मिलना होता रहा।वो कभी आकाशवाणी में या कभी हमारे आफिस के आस-पास आते तो बिना मुझसे मिले न जाते।और मौक़ा मिलने पर मैं  भी भाई के घर पहुँच जाता।पर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि भोजन किये बिना उन्होंने मुझे वापस आने दिया हो।

   


इलाहाबाद से दिल्ली और फिर पुणे रहते हुए मिलना तो कम रहा पर फोन पर खूब बातें होती थीं।अक्टूबर 2012 में अपने बड़े बेटे डा०मुकुल के रोड एक्सीडेंट में असामयिक निधन के बाद वो बिल्कुल टूट से गए थे।अम्मा जी का स्वास्थ्य भी काफी नाजुक स्थिति में आ गया।लगभग तीन साल तक बिस्तर पर रहने के बाद नवम्बर 2013 में अम्मा जी ने भी उनका साथ छोड़ दिया।भाई की मनःस्थिति भी अच्छी नहीं रही।पर इतने झंझावातों के बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा।उस दौरान भी लेखकीय सक्रियता उन्हें बहुत बल दे रही थी।

   


मैं भी मई 2013 में पुणे से गोरखपुर आ गया था।पर उन दिनों  मैं भी कुछ पारिवारिक समस्याओं से बुरी तरह घिरा था।अक्सर गोरखपुर से कानपुर आना-जाना होता ही था।कार से आने-जाने के कारण लखनऊ रुकना आसान होने लगा।दिसंबर 2012 से वो भी स्थाई रूप से छोटे बेटे डा० हेमन्त के पास लखनऊ में ही रहने लगे थे।अक्सर मैं लखनऊ में उनसे मिलते हुए ही गोरखपुर जाता ।उन्हीं दिनों 2012 में उनका बाल उपन्यास “मौत के चंगुल में” नेशनल बुक ट्रस्ट से छप कर आया था।मुझे उसकी प्रति भेट करके उन्होंने उपन्यास पढने का आग्रह किया।मुझे अच्छा लगा कि मैंने उसकी समीक्षा लिखी और वह एक अच्छी पत्रिका में छपी।बीमारी की हालत में भी मेरी समीक्षा पढ़कर वो फोन करके धन्यवाद देना न भूले।

    


इस बीच मैं मार्च 2015 में ट्रांसफर होकर तीसरी बार फिर इलाहाबाद आ गया था।मेरी सिर्फ डेढ़ वर्ष की नौकरी बची थी।उधर वर्ष 2016 की शुरुआत से ही उनका स्वास्थ्य काफी गड़बड़ रहने लगा था।घुटनों की तकलीफ काफी बढ़ गयी थी।अब बिना वाकर की सहायता के उनका चलना-फिरना बहुत मुश्किल हो गया था।इस दशा में भी वो बच्चों की कहानियां लिखते रहे,और कुछ प्रकाशित भी हो रही थीं।दिसंबर 2012 में लखनऊ आने के बाद उनकी कुछ बाल कहानियाँ नंदन,बालवाणी,सुमन सौरभ,बाल भारती में छपीं भी।तीन चार बड़ों की कहानियां कथा-क्रम,जनसत्ता(दीपावली विशेषांक),चौथी  दृष्टि जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुयी थीं।उनकी लेखन ऊर्जा और सक्रियता देख कर बहुत खुशी होती थी।

    


अचानक एक दिन मेरे पास उनका फोन आया।शायद 25जुलाई 2016 का दिन था वो।उस दिन मैं कानपुर में था।बहुत ही भावुक होकर निराशा भारी बातें करने लगे।मुझसे मिलने की इच्छा भी व्यक्त की।अगले दिन ही मैं सुबह-सुबह लखनऊ उनसे मिलने पहुँच गया।उस दिन उन्होंने मुझसे जी भर कर बातें की।खूब खुश हुए।सबका हाल पूछा।मेरा हाथ पकड़कर काफी देर बैठे थे।खुद भोजन नहीं किया पर मुझे भोजन करते देखते रहे,खुश होते रहे।फिर मिलने का वादा करके मैं भारी मन से कानपुर लौट आया।क्या पता था कि ये हम लोगों की आखिरी मुलाक़ात थी।

    


31 जुलाई की रात्रि में डा०हेमन्त का फोन आया कि भाई नहीं रहे।अगले दिन वो उनका पार्थिव देह लेकर इलाहाबाद पहुंचेंगे।बहुत कष्टकारक बात ये हुई कि डा०हेमन्त ने अपने जन्मदिवस यानि 1 अगस्त को ही अपने पिताश्री को मुखाग्नि दी।शायद ईश्वर को यही मंजूर था।अगस्त 2016 की अंतिम तारीख को मेरी सेवानिवृत्ति भी हो गई।

   


कितनी विचित्र बात हुई कि इलाहाबाद शहर से मेरा रिश्ता उन्हीं के साथ जुडा  और उनके जाने के साथ ही ख़त्म भी हो गया।

                    


०००००



                          

० कौशल पाण्डेय



परिचय:


जन्म 3 अगस्त 1956 अन्किन कानपुर।1977 से बच्चों एवं बड़ों के लिए भारत की स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में लेखन।प्रकाशित पुस्तकें: “जंगल की और”, “सोन मछरिया गहरा पानी”(बाल कवितायें), “पासा पलट गया”(बाल नाटक मराठी में भी अनूदित),”रानी की जिद “(बाल कहानी संग्रह ) “बाल साहित्यकार-कौशल पाण्डेय:सृजन और संवाद”, “शेष कुशल है”, “इतना छोटा सफ़र”(कहानी संग्रह), “प्रयोजनमूलक हिन्दी:विविध सन्दर्भ(संपादित लेख संग्रह)।देश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा कई सम्मानों से समादृत।सदस्य-,हिन्दी पाठ्यक्रम समिति (महाराष्ट्र सरकार)।34 वर्षों ताका आकाशवाणी में सहायक निदेशक राज्य भाषा पद पर कार्य कर के सेवानिवृत्त।सम्प्रति कानपुर से “अक्षत“ त्रैमासिक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन तथा स्वतन्त्र लेखन।      



संपर्क:1310-ए,बसंत विहार,कानपुर-208021 मोबाइल नंबर-9532455570          

                                          

               

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अक्षत का सातवां अंक

रविवार, 29 जून 2025

 

अक्षत का सातवां अंक

                  


          जनसंचार माध्यमों के साथ-साथ समकालीन साहित्य पर केंद्रित 'अक्षत ' ( सम्पादक-कौशल पांडेय ) पत्रिका का नया और सातवां अंक ( जुलाई- सितंबर, 2025 ) अपने आकर्षक आवरण के कारण हमारा ध्यान सहज ही आकर्षित करता है l रचनात्मक विविधता वाले इस अंक में कुमार कृष्ण , हीरालाल नागर, डॉ.रमेश मिलन, डॉ.रंजना दीक्षित, डॉ.भगवान प्रसाद उपाध्याय, स्वरांगी साने, विजय नगरकर, अभिनव पाण्डेय,पूनम श्रीवास्तव और चिन्मय सांकृत के आलेख साहित्य, संस्कृति,फिल्म, रंगमंच, पत्रकारिता और संगीत के विविध पक्षों को रेखांकित करते हैं l



डॉ.रंजना जायसवाल और जयराम सिंह गौर की कहानियां, डॉ.मधु प्रधान की बालकथा और समीक्षा तेलंग के व्यंग्य को भी इस अंक में पढ़ा जा सकता है।



डॉ. हेमन्त कुमार के अप्रकाशित  उपन्यास अंश को पढ़ना आज के समय के साथ संवाद करने जैसा है।कविताओं की संख्या भले ही कम है पर ललन चतुर्वेदी, शिवचरण चौहान और निवेदिता झा (मैथिली) की अच्छी कविताएं इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि पत्रिका कविताओं के प्रति भी गंभीर है l



इस अंक के सम्पादकीय में राजभाषा हिंदी से जुड़े कुछ जरूरी सवाल उठाए गए है, जिन पर आज चर्चा की कुछ ज्यादा ही जरूरत है।

      


बड़े आकार की साठ पेज की इस पत्रिका को सामान्य पाठकों के साथ-साथ पत्रकारिता, फिल्म,रंगमंच,साहित्य के छात्रों और नए पत्रकारों को जरूर पढ़ना चाहिए l



पत्रिका प्राप्त करने के लिए व्हाट्सएप नंबर 9532455570 पर संदेश भेजकर जानकारी प्राप्त की जा सकती है ।

           


इस अंक के लिए रेखांकन देश की प्रतिष्ठित चित्रकार किरण चोपड़ा ने बनाए है तथा आवरण AVI Studio द्वारा तैयार किया गया है l

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अर्पणा पांडेय

मो०-- 09455225325

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. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अक्षत अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अपराध अपराध कथा अभिनव पाण्डेय अभिभावक अमित तिवारी अम्मा अरुणpriya अर्पण पाण्डेय अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कलाकार कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नई पत्रिका नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नित्या नित्या शेफाली नित्या शेफाली की कविताएं नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेंटिंग्स पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंकू बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा दोस्त मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा युवा स्वर रंगबाज रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लखनऊ लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रद्धांजलि श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा हादसा-2 हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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