आज मेरे आदरणीय पिता जी स्व०श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की
आठवीं पुण्य तिथि है .उनको स्मरण करते हुए मैं क्रिएटिवकोना पर आज उनकी एक कहानी “ बेटा “प्रकाशित
कर रहा हूँ .
कहानी
बेटा
कुलवीर सिंह गीले तौलिए
से सेबों को रगड़ रगड़ कर पोंछ कर,टोकरी में करीने से
लगा ही रहा था कि चौथी बाहर वह लड़की फिर उस की दुकान में दाखिल हुई। वह उसे देखकर
बेतहाशा चिढ़ गया। अभी सुबह से बोहनी बट्टा कुछ नहीं हुआ था। और पता नहीं किस गली की
यह लौंडि़या तीन बार उस से उधार फल लेने आ चुकी थी। म्युनिसिपैलिटी आवारा
कुत्तों को पकड़ने का इंतजाम तो करती है मगर इन आदमीनुमा पिल्लों को पकड़ने की वह कोई
जरूरत नहीं समझती............वह मन में कई बार भुनभुनाया था।
उसके जी में आया कि वह उसे एक तमाचा रसीद करता हुआ कहे, फिर आएगी उधार मांगने ?
लेकिन इसकी नौबत ही
नहीं आई। इस बार लड़की के हाथ में एक रूपए वाला नोट चमक रहा था। नोट एकदम नया था जैसे अभी-अभी छप कर निकला हो। कहीं जाली तो नहीं
है, उस ने नोट को हाथ में ले कर अविश्वास के साथ कई बार उलटा पलटा,लेकिन कहीं कोई गड़बड़ी नहीं थी। कुलवीर सिंह ने लिफाफे में सेब रखे और लड़की को
झुका हुआ कांटा दिखा कर कहा, “पाव भर से ज्यादा दे
रहा हूं।” फिर उस ने लिफाफा उस के हाथ में दे दिया। उसे डर था कहीं लड़की
उसी जगह लिफाफे के भीतर से सड़े हुए सेबों को देख न ले।लेकिन लड़की के मन में शायद
इस संदेह के लिए जगह न थी। सेबों के हाथ में आते ही वह कुलांचे मारती हुई सामने की
गली में गायब हो गई। कुलवीर सिंह ने संतोष की सांस ली।
फिर रोज के ग्राहक
आने शुरू हो गए।उस लड़की की बात वह करीब-करीब भूल सा गया।
तीसरे पहर की डाक में
उसे घर से छोटे भाई महिंदर की चिठ्टी मिली“आप ने आने के लिए लिखा
था,क्यों नहीं आए? मेरी पढ़ाई करीब-करीब
छूटने वाली है क्यों कि मेरे पास किताबें नहीं हैं। मां दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा
रही है।यहां दवा का कोई इंतजाम नहीं है।आप ने जो फल भेजे थे आधे से भी ज्यादा सड़ चुके
थे।”
कुलवीर सिंह का मन
रेलवे अधिकारियों के प्रति रोष से भर उठा--- इनके हाथों उसे हमेशा नुकसान उठाना पड़ता
है। घर भेजे गए फलों की ही बात नहीं, खुद उस की दुकान पर
आने वाली पेटियों को अक्सर रास्ते में ही खोल डाला जाता है। कभी-कभी तो माल को पता
नहीं कहां अटका देते हैं कि यहां पहुंचने पर उस के खोलने से पहले ही भीतर की सड़ी हुई
बास बाहर फूटने लगती है। तब भला वह ग्राहकों पर अपने हाथ की कारीगरी न दिखाए तो कैसे
काम चले ? घाटे का सौदा ले कर यह छोटी सी दूकान कितने दिन चल सकती है।
इस बात का ख्याल आते
ही सुबह वाली लड़की अचानक फ़िर उसकी आंखों में आ खड़ी हुई। किस खूबी से उस ने ऊपर वाले
अच्छे सेब के नीचे दो एकदम गले हुए सेब छिपा दिए थे।यह तय बात है कि मरीज को पहले ऊपर
वाला अच्छा सेब खाने का दिया जाएगा। जब तक दूसरे सेबों की बारी आएगी वे गल चुके होंगे।
हां-हां सेब तो एकदम कच्चा और नाजुक माल है। देखते न देखते सड़ने शुरू हो जाते हैं।
कहीं दबा पड़ा होगा और वे गल गए होंगे। इस के लिए भला मैं क्या कर सकता हूं। वह मन
ही मन जवाब तैयार कर लेता है।
कहना शायद गलत हो क्योंकि
यह तो बहुत पहले से तैयार किया हुआ है।शायद फलों की दूकान खोलने के दिन से ही।
कुलवीर सिंह ने चिट्ठी
टाट के नीचे दबाई और सेबों तथा मौसम्मियों को फिर संवारने लगा।बाज ग्राहक बड़े ऊलजुलूल
किस्म के आ जाते हैं। जरूरत चाहे पाव भर अमरूद की भी न हो मगर तमाम टोकरियों को इस
बुरी तरह उलटपलट डालते हैं कि उन्हें तरतीब से रखने में फिर उस का बड़ा वक्त बरबादद
होता है। सेबों की आजकल बेहद कमी थी।उसके पास ज्यादातर हरे खट्टे सेब
रह गए थे। मीठे सेब कम आते थे और जो आते वे पहुंचते ही बिक जाते थे। वह एक-एक सेब को
बड़ी सावधानी से पोंछता और लगाता। यह भी एक कला है जिसे उसने किसी से सीखा नहीं, धीरे-धीरे
अनुभव, द्वारा स्वयं जान गया था। वह सेबों के गुलाबी हिस्से को बाहर
की ओर रखता था। आगे की ओर बडे-बड़े और उम्दा किस्म के सेब रहते। सेबों के पिरामिड पर
टोकरी के सब से बड़े और खूबसूरत सेब को स्थान मिलता। इन सब के बीच सड़े हुए, दागी और कीड़े खाए सेबों को वह बड़ी होशियारी से छिपा देता। और उन्हें अच्छे सेबों
के साथ इस तरह मिलाकर तोलता कि ग्रहक को जरा भी संदेह न होता। कभी-कभी ग्राहक अपने
हाथ से फल उठाने लगते तब वह मुस्करा कर उन की पसंद की दाद कुछ इस लहजे में देता कि
उन का हाथ लगाने का उत्साह खुद ठंडा पड जाता और वे उसी की इच्छा पर सब कुछ छोड़ देते।
इस तरह एक ओर का घाटा दूसरी तरफ पूरा हो जाता।
कुलवीर सिंह ने मिंटो
रोड पर यह दुकान हाल में ही शुरू की है।पहले वह ठेला लगाता था। शुरू में तो उसे लगातार ऐसा घाटा होता चला गया कि उस ने फलों की दुकानदारी का विचार ही समाप्त कर
दिया था।मगर धीरे-धीरे इस बिजनेस के गुर मालूम हुए तो वह जम गया।पहले सिर्फ मौसमी फल
रखता था। अब कम या ज्यादा हर किस्म के फल बेचता है। अगले महीने से तो उस ने सूखे फल
और मेवे भी लगाने का इरादा कर लिया है। उस पर छोटे भाई को बैठा देगा, भाई आएगा तो मां भी आएगी और तब वह निश्चय ही उस के लिए कुछ कर सकेगा।और कुछ नहीं
अस्पताल तो है ही।
उस ने टाट के नीचे
से छोटे की चिठ्ठी निकाली और एक बार फिर पढ़ गया। मां बीमार है।आज से नहीं,बल्कि पूरे दो बरस से। सूख कर कंकाल हो गई है। न तो अभी तक वह उस के इलाज भर को पैसे जुटा सका और न उसे
अपने पास ही रख सका है। घर पर सभी कच्चे कमरे बैठ चुके हैं। बस एक खपरैल का ओसारा शेष
है। जिस के एक कोने में मां की चारपाई लगी रहती है। मां से मिले उसे कई
महीने हो गए हैं। न जाने कैसी हो गई होगी, शायद पहचानना भी मुश्किल
हो जाए। मंहिदर उसे कमर के सहारे बैठा कर पानी पिलाता है। और अचानक कुलवीर सिंह की
आंखे गीली हो आईं।
“दे दो न! मां खुद आने
को कहती थी मगर उस से तो बैठते भी नहीं बनता।” हां, लड़की ने यही
तो कहा था। जैसे वह उस की मां को पहले से जानता हो, उस ने कठोर स्वर में
उत्तर दिया था,“ चल हट मैं तुझे या तेरी मां को नहीं जानता!”
लड़की दुबारा आई तो
सहमी हुई सी दूर एक कोने में खड़ी रही। उस की आंखें टोकरी में लगे हुए गुलाबी सेबों
पर गड़ी हुई थीं। जैसे वह उन्हें आंखों में फंसा कर ले भागना चाहती हो।
कुलवीर सिंह को सुबह बोहनी के वक्त यह खोट
खल गई थी। इस बार वह बोला तो कुछ नहीं मगर जिन आंखों से उसे तरेर कर देखा उन्हें सहन
कर पाना शायद उस छोटी लड़की की हिम्मत से बाहर था। वह धीरे से खिसक गई।
तीसरी बार उस ने दूर से ही डरते डरते कहा, “मां ने सेबों का भाव पूछा है?”
फिर वह रूपया ले कर आई तो उस ने सेब तोल दिए थे।
“सेठ, यह नोटिस है!” कुलवीर सिंह सुबह दुकान
का ताला खोल रहा था कि म्युनिसिपैलिटी के एक चपरासी ने उस की ओर एक कागज बढ़ाते हुए
कहा।
उसे लेते वक्त कुलवीरसिंह का हाथ कांप
गया, यह गुमटी उठा लेने का नोटिस था। छः सात महीने पहले जब उस ने
यहां लकड़ी की गुमटी खड़ी की थी, तभी म्युनिसिपैलिटी
के मास्टर प्लान में इस सड़क को चौड़ी करने की बात आ चुकी थी।मगर प्लान में जल्दी हाथ
लग जाएगा, उसे ने सोचा भी न था। अब गुमटी कहां हटाई जाए, कहीं भी तो गुंजाइश
नहीं है। कुलबीर सिंह ने सपनों का जो इतना ऊंचा महल खड़ा किया था, वह क्षण भर में बालू के घरौंदे सा ढहता नजर आया। उस ने चपरासी के हाथ
पर फैली हुई ‘पियनबुक’ पर कांपती उंगलियों
से दस्तखत कर दिए।
दिन भर कुलवीर सिंह
खोया-खोया सा रहा। न उस ने भाटिया रेस्तरां से चाय मंगवाई और न दोपहर का खाना खाया।
उस का मस्तिष्क इतना असंतुलित हो उठा कि वह क्या तोल रहा है, कितना तोल रहा है इन बातों में भी गलतियां करने लगा। किसी की डलिया में अनार की
जगह मौसमी डाल दी तो किसी को पाव की जगह आधा किलो तोल दिया। कौन कितने पैसे दे रहा
है, वह क्या वापस कर रहा है- इसे ले कर भी ग्राहकों ने उसे खूब बेवकूफ बनाया। आज का
दिन उसे बेहद लंबा महसूस हुआ। सूरज जैसे ढलना ही नहीं चाहता था। किसी तरह शाम हुई तो
उसने रोज की अपेक्षा जल्दी ही दुकान बंद कर दी। वह किसी पार्क में पहुंच कर एक कोने
में चुपचाप लेट जाना चाहता था। अपनी बीमार मां, परेशान महिंदर और ठेले पर गली-गली घूमने का ख्याल---कुछ देर के लिए वह इन सब को
विस्मृति के गर्त में दबा देने को कोशिश करेगा।
जब वह पहली गली में
मुड़ रहा था, अचानक उसे फिर वही लड़की नजर आ गई। हालांकि उस का चेहरा पीला था और आँखों में से एक अजीब पीड़ा और उदासी झांक रही
थी। मगर वह उसे देखते ही भभक उठा, इसी के अपशकुन से उस
पर अकस्मात् इतनी बड़ी मुसीबत भहराई है। कितनी बुरी होती है सुबह ही सुबह बोहनी की
खोट! उस के जी में आया कि आगे बढ़ कर उस का मुंह नोच ले, लेकिन लड़की शायद उसके
मन का भाव पहले ही ताड़कर रफूचक्कर हो चुकी थी, कुलवीर सिंह चुपचाप
पार्क की ओर बढ़ने लगा।
कुछ ही दिन बाद एक
सबुह कुलवीर सिंह पार्सलघर में एक पेटी के उपर झुका हुआ उस के सही सलामत होने की जांच
कर रहा था कि किसी ने पीछे से उस के कंधे पर हाथ रखा। उस ने चौंक कर सिर
उठाया तो देखा, उस का पूर्व परिचित ओवर सियर बिशनलाल खड़ा
मुस्करा रहा था। उस ने छूटते ही कहा, “बिशन, तुम्हारे रहते मैं अपनी दुकान हटाने के कल मजबूर किया जाऊं,करेगा कोई हमारी दोस्ती का यकीन?”
बिशन लाल हंस कर बोला,“तुम्हारी बात से लगता है कि जैसे मैं ही मास्टर प्लान लागू करने जा रहा हूं।”
“देखो बिशन, तुम्हारा जोर और रूतबा मुझ से छिपा नहीं है तुम चाहो तो अब भी मेरे लिए कोई सूरत
निकाल सकते हो। क्या तुम जानते नहीं कि मुझे सचमुच फिर उसी ठेले पर आना पड़ा तो मैं
बरबाद हो जाऊंगा।” इस बार कुलवीर सिंह
कुछ मायूस हो कर बोला।
“कुलबीर, तुम ने यह कैसे समझ लिया कि मैं तुम्हारे बारे में यह सब जान कर भी खामोश बैठा
रहूंगा।” कह कर बिशन लाल पेटी को गौर से देखने लगा। कुलवीर सिंह की आंखों
में आशा की चमक आ गई। उस ने बेताबी से आगे बढ़ कर कहा,“देखते क्या हो, रामगढ़ के नायाब मीठे सेब हैं। महीनों की लिखा-पढ़ी के बाद यही एक पेटी मिल सकी है।”
“होंगे नायाब, मेरे किस काम के?” बिशनलाल एक आंख दबा
कर मुस्कराया। कुलवीर सिंह कुछ हड़बड़ा कर बोला, “पूरी पेटी तुम्हारे लिए हाजिर है। मगर इस तरह तुम्हें उठा कर
दे दूं तो कल को तुम्हीं गाली दोगे,“क्या सड़े हुए सेब
दिए हैं? कसम खा कर कहता हूं, आधे से ज्यादा दागी और गले हुए निकल जाते हैं। कल इन
में से उम्दा उम्दा छांट कर तुम्हारे लिए डलिया पेश करूंगा।” फिर जैसे गले में अटके हुए थूक को निगल कर बड़ी मुश्किल से अपने मतलब की बात पर
आने की कोशिश की “खैर इसे छोड़ो, यह सब तो तुम्हारा
है ही यह बताओ कि मुझे कहां ठिकाना दे रहे हो?”
“कोशिश करूंगा कि मेडिकल
कालिज के सामने म्युनिसिपैलिटी की दुकानों में तुम्हें जगह मिल जाए।” बिशनलाल ने अपने ओहदे के मुताबिक गंभीर लहजे में कहा,
“वहां तो तिल धरने की
भी जगह नही हैं”?
अचानक कुलवीर सिंह की आंखों में निराशा तैर उठी।
“मैं जगह करूंगा न।” बिषनलाल बोला,“एक दुकानदार पर सालों
का टैक्स बकाया था, दो तीन दिन हुए उसे
दुकान से बेदखल किया गया है तुम कल किसी वक्त मेरे पास चले आना,बडे़ बाबू के यहां चले चलेंगे।बस, उनके खाने पीने का
ध्यान रखना।” और फिर इशारों ही इशारों
में सब तय हो गया।
लौटते वक्त कुलवीर
सिंह रिक्शे पर नहीं था। जैसे इंपाला कार पर
उड़ रहा था।मेडिकल कालिज के सामने दुकान पाना उस के लिए शुरू से ही सपना रहा है। उसे
अच्छी तरह मालूम है कि इमामबख्श, दीपचन्द्र,मुंशीराम, सभी जो आज स्कूटरों पर उड़ते फिरते हैं वे
सब के सब मेडिकल कालिज की बदौलत ही है। उस ने मन ही मन में पेटी के सारे सबों को
चूम लिया।क्योंकि आज वे उस के लिए सेब नहीं, वरदान थे।
सुबह जब कुलवीर सिंह पेटी खोल रहा था तो
दूर बिजली के खंभे की ओट ले कर किसी की दो आंखे पेटी का एकटक ताक रही थीं। पेटी खुलते
ही कुलवीर सिंह को बड़ा धक्का पहुंच, मुश्किल से एक चौथाई
बेदाग सेब निकले। लेकिन यह अफसोस ज्यादा देर नहीं टिका।क्योंकि
सेबों की एक और ही सुनहरी पेटी उस के सामने खुली पड़ी थी। बचे हुए सेब बिशनलाल के यहां
भेजने के लिए काफी थे।उन्हें उस ने एक डलिया में चुन कर सजा दिया। थोड़ी देर में बिशनलाल
का आदमी आएगा तो डलिया उसे दे देगा।
खाली पेटी को वह दुकान
के पीछे डालने के लिए नीचे उतरा तो सहसा उस की नजर खंभे की ओट ले कर खड़ी उस लड़की पर
पड़ गई।
आज उसे जरा भी बुरा नहीं लगा। उलटे उसे एक अजीब सी खुशी महसूस
हुई। पता नहीं क्यों कर उस ने दागी सेबों में से एक उठाया और उसे लड़की को देने के
लिए आवाज दी। शायद लड़की ने समझा कि यह उसे पकड़ने के लिए कोई चाल है। इसलिए वह तेजी
से मुड़ कर गली की ओर भागी। कुलवीर सिंह आज शरारत
करने के मूड में था। उस ने पड़ोसी को दुकान देखने के लिए कहा और
स्वयं सेब ले कर लड़की के पीछे भागा। लड़की अब बेतहाशा दौड़ने लगी थी। कुलवीर सिंह उसे पकड़ पाता इस से पहले ही वह सामने
के खंडहरों में घुस कर गायब हो गई। पीछे-पीछे कुलवीर सिंह पहुंचा, लेकिन अंदर उसे एक भी साबित छत वाली कोठरी दिखाई नहीं दी। सिर्फ किसी जमाने की
अधगिरी नंगी दीवार खड़ी थी। तभी उस ने अपने पीछे किसी के हांफने की आवाज सुनी। घूम
कर देखा दो टेढ़ी पड़ गई दीवारों पर टाट का एक परदा डाला हुआ था और उसी के ठीक पीछे
शायद वही लड़की ख्रड़ी हांफ़ रही थी।
“क्या है,अंजनी ?” एक दुर्बल नारी कंठ
सुनाई पड़ा। कुलवीर सिंह ने अनुमान लगाया, अवश्य यह लड़की की
मां होगी। लड़की अभी तक जोर जोर से सांस ले रही थी। कुलवीर सिंह के मन में एक उत्सुकता
जागी। उस ने टाट सरका कर भीतर झांका। इस से पहले कि लड़की चीख कर पीछे
लुढ़कती, कुलवीर सिंह ने उसे अपने हाथों पर संभाल लिया। उसने लड़की को
फौरन चुप कराने के बाद ही अपना परिचय दे देना उचित समझा,“माता जी, मैं फल बेचने वाला हूं। बिटिया को सेब देना
चाहता था मगर यह तो ड़र के ऐसी भागी कि सहसा कुलवीर सिंह बोलता बोलता अटक गया उसे महसूस
हुआ कि उस की बांहों में अंजनी नहीं महिंदर है। और यह सामने झिलंगे पर उठने का व्यर्थ
प्रयास करती हुई बूढ़ी औरत............ हां अब यहां की फीकी रोशनी में उस के चेहरे
को वह अच्छी तरह देख सकता है। उसने अपने दाहिने हाथ को मुक्त कर कई बार अपनी आंखों
को मला मगर नहीं एकदम उस की मां है।संदेह के लिए जरा गुंजाइश नहीं। और वह उस के सीने
से लग कर धड़कता हुआ दिल? उस ने एक नहीं, पता नहीं कितनी बार इसी तरह मंहिदर को अपने सीने से चिपटाया है। उस का धड़कता हुआ दिल भी ठीक ऐसी ही आवाज करता है, कहीं कोई अंतर नहीं।
“बेटा!”, इस बार आवाज अधिक स्पष्ट
थी। अथवा बनाने की कोशिश की गई थी “तुम्हें यह लड़की बहुत
परेशान करती होगी। भला इस पगली से कोई यह पूछे कि डाक्टर के कह देने से क्या होता है।
फल खरीदने को अपनी औकात भी तो होनी चाहिए। पता नहीं कब का जोड़ा हुआ एक रूपया बचा था।
यह जिद करके उसी का तुम्हारे यहां से सेब ले आई।”
कुलवीर सिंह का कलेजा जोरों से धड़कने लगा। लिफाफे के दोनों सड़े
हुए सेब उस की आंखो में बिजली के लट्टू की तरह जल उठे। लेकिन मां कहती रही, “इस का भैया जब मिल में नौकर था, कई बार इलाज के लिए
उस ने मुझे डाक्टर को दिखाना चाहा मगर पैसे ही पूरे नहीं पड़े अब तो छंटनी में आ कर
बेकार हो गया है। पगला एक हफ्ते से मेडिकल कालिज के सामने दुकान लगाने के लिए दौड़ रहा
है।नौकरी न सही, फलों की एक छोटी-मोटी दुकान ही सही, नमक रोटी का आसरा तो हो जाता।”
“मेडिकल कालिज के समाने
!” अकस्मात कुलवीर के मुंह से निकल पड़ा।
“हां बेटा,सुना है कोई दुकान खाली हुई है,उसे कई बार समझाया
कि बेकार क्यों दौड़ता है,वहां पैसे वालों की
सुनवाई होगी। मगर सनकी है कहता है, तब तुझे डाक्टर को
कैसे दिखाऊंगा ?”
कुलवीर सिंह का अंतर्मन विस्मय से चीख पड़ा, इतना साम्य! उस का दिल न जाने कैसा होने लगा। उस के जी में आया कि वह फौरन उस के
सिरहाने घुटनों के बल बैठ जाए और प्यार से अपना गाल उस के माथे पर टिका दे।
“मगर वह अपनी सुधबुध
खोया सा चुपचाप कुछ देर तक यों ही खड़ा रहा। उन टूटी हुई दीवारों
और फटे हुए टाट के परदे के घेरे में एक बेचैनी, एक तड़पन के तार गूंजते
रहे।
सहसा उस ने कहा,“मैं अभी आया।और वह
तेज कदमों से बाहर निकल आया। कुलवीर सिंह ने दुकान पर पहुंच टाट की परतों को उलटा-पलटा।नीचे
मटमैले कपड़े में लिपटी हुई नोटों की एक गड्डी दबी हुई थी।उस की जिंदगी भर की कमाई के
अस्सी-पच्चासी रूपये।उस ने नोटों को अपनी मुठ्ठी में कस कर भींच लिया।
दूर राम गंगा के किनारे किसी गांव के अंधियारे कोने में खोई हुई बीमार मां, भाई की प्रतीक्षा में पहाड़ से दिन गुजारता महिंदर, मेडिकल कालिज के सामने
फलों की सजी हुई दुकान, स्कूटरों पर उड़ते
हुई दीपचन्द्र और मुंशीराम, क्षण मात्र में फिल्म
की एक रील उस की आंखों के सामने से गुजर गई। हर फ्रेम पर उस की आशा और आकांक्षाओं का
शव छितराया हुआ था। मगर इन सब पर हौवा था एक चेहरा, हर तस्वीर पर कांपती
हुई उस चेहरे की परछांई, जैसे जनम-जनम का जाना
पहचाना एक चेहरा, दर्द और ममता में डूबा हुआ हो। यह टाट के पीछे उस के बाजुओं से टकराती दिल की धड़कने महिंदर की थीं। खंड़हरों
के साए में आंखों के नीचे काले गड्ढे थे। चारों ओर पड़ी हुई सलवटें उस की मां की थीं।
कुलवीर सिंह ने नोटों की गड्डी उठा कर अपने
पडोसी दुकानदार से कहा, “भई थोड़ी देर और देखना,मैं अभी आया,और नीचे उतर कर वह तेजी से उन खंडहरों की
ओर बढ़ने लगा............।
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लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
परिचय 11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना
गांव में पैदा हुए प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव मुख्यतः ग्रामीण जीवन के कथाकार
हैं.चाहे उनका बाल साहित्य हो या फिर बड़ों के लिए लिखी गयी कहानियां या नाटक---
उनकी अधिकाँश रचनाओं में हमें गांव की मिटटी का सोंधापन जरूर मिलेगा.
शुरुआती पढ़ाई जौनपुर
में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के
शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,
नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर
मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों
एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों, की पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा”आदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।सन
2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशित बाल उपन्यास “मौत के चंगुल में” काफी चर्चित।नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशितही बाल नाटक संग्रह”एक तमाशा ऐसा भी”।
इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग
तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन
का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला। 31जुलाई
2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।
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