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बंकू : एक प्यारा पिल्ल़ा जो जिया एक योद्धा की तरह

सोमवार, 24 मार्च 2025

 

पुस्तक समीक्षा



बंकू : एक प्यारा पिल्ल़ा जो जिया एक योद्धा की तरह


पुस्तक का नाम : बंकू


लेखक : अमित तिवारी


प्रकाशक : बोधरस प्रकाशन,लखनऊ


मूल्य :रू—200/-

     

     

                                

    

आमतौर पर मैं कोई किताब एक या दो दिनों में नहीं ख़तम कर पाता या कह सकते हैं कि मैं एक स्लो रीडर हूं लेकिन कभी कभी ऐसी किताबें भी मिल जाती हैं जिन्हें पढ़ना शुरू कर देने के बाद बिना उस किताब को पूरी किए दूसरा काम नहीं कर सकता

  


ऎसी ही एक किताब इधर पुस्तक मेले में मुझे मिल गई “बंकू” जिसके लेखक हैं युवा साहित्यकार अमित तिवारी ।“बंकू” अमित तिवारी का उपन्यास है जिसके चार महीने में ही दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैंस्लो रीडर होने के बावजूद मैंने यह उपन्यास कुल छः सात घंटों में एक बैठक में ही पढ़ लिया अमित तिवारी की बंकू के अलावा दो किताबें और प्रकाशित हो चुकी हैं –“माया मरी न मन मरा” और “वैतरणी के पार”

   


इस उपन्यास को एक बैठक में ही पढ़ डालने का कारण उपन्यास के कथ्य का नयापन,इसकी रोचकता और लेखन की एक अलग शैली है दरअसल “बंकू” किसी मनुष्य या व्यक्ति की कहानी नहीं हैयह कहानी है एक छोटे से पिल्ले की जो बहुत कम जीवन जीने (लगभग चार वर्ष )के बावजूद एक योद्धा की तरह रहा यह कहानी है एक प्यारे पिल्ले के जीवन संघर्ष,उसकी जीवन जीने की जिजीविषा और उसके जीवन में आने वाले तमाम संकटों,बाधाओं यहां तक कि मौत को भी चकमा देकर स्वस्थ हो जाने की इसीलिए लेखक ने कहा भी है “बंकू का जीवन लंबा न रहा,लगभग चार साल की उम्र में ही वह ईश्वर के पास चला गया ,लेकिन उसने पूरा जीवन जिया,एक योद्धा का जीवन बंकू ने हम सबको और अधिक संवेदनशील होना सिखाया,प्रेम करना सिखाया और सिखाया हृदय में जगह बनाना.... ।”

  


बंकू सिर्फ एक पिल्ले की कहानी भर नहीं है बंकू के माध्यम से लेखक ने किसी भी जीव के मन में उठने वाले भावों,उसकी सोच,मनुष्यों को लेकर उसके भीतर चलने वाले अंतर्द्वंद्वों तक झाँक कर उन्हें बहुत कुशलता के साथ एक उपन्यास का रूप दिया है यह उपन्यास पढ़ते समय यह लगता ही नहीं कि यह सब कुछ “बंकू” नाम के एक पिल्ले के बारे में लिखा जा रहा है कारण यह कि बंकू अपने मालिक के घर आने के बाद से ही जीवन जीने की कला सीखने लगा अपने आस-पास के जीवों के साथ ही वह धीरे धीरे मनुष्य समाज को भी समझने की कोशिश करने लगाक्या बुरा है क्या भला ,कौन दोस्त है कौन दुश्मन इसकी पूरी समझ उसके अन्दर विकसित होने लगी उसने पूरे मानव समाज से एक नाता जोड़ना शुरू कर दिया जो उसके जीवन के अंत तक बना रहा



बंकू” की कहानी शुरू होती है जाड़े की एक दोपहर से जिसमें धूप में बंकू अपने भाई के साथ उछल-उछल कर खेल रहा था और गाँव के दो युवा उनका खेल देख रहे थे बंकू का भाई (दूसरा पिल्ला)कद काठी में थोड़ा मजबूत और तेज था जबकि बंकू कमजोर था बंकू का भाई बार-बार उस युवक के पैर के पास आकर अपने पंजों से उसके पैरों को छू रहा था मनो उसे भी साथ खेलने के लिए आमन्त्रित कर रहा हो कुछ देर उनका ये खेल देखकर दोनों युवक वहां से अपने घर वापस चले गएलेकिन रात में ठंढ बढ़ने के साथ ही उन्हें दोनों पिल्लों की चिंता सताने लगी अगले दिन दोनों जब फिर वहां पहुंचे तो मजबूत वाला पिल्ला (बंकू का भाई)ठंढ से मर चुका था और पतला दुबला वाला काला पिल्ला उसके ऊपर बैठ कर उसे ढकने की नाकाम कोशिश कर रहा था

   


काफी सोच विचार के बाद दोनों उस कमजोर पिल्ले को घर लाते हैं उसका घर बनाते हैं और उसका नाम “बंकू”रखा जाता है और यहीं से कहानी शुरू होती है बंकू के मनुष्यों से संपर्क,उनसे एक पारिवारिक रिश्ता जोड़ने,और उसके जीवन संघर्षों की वह जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है उसकी शैतानियाँ,चुलबुलापन,पास में रहने वाले दूसरे पिल्लों के साथ छेड़छाड़,धमाचौकड़ी और दोस्ताना सब कुछ बढ़ता जाता हैबंकू ने उन्हीं में से खुद से उमर में अधिक और अपेक्षाकृत एक बड़े कुत्ते “ढोल” से पक्की वाली दोस्ती भी कर ली थीवह ढोल के साथ घर से दूर खेतों और नदी किनारे तक जाने लगता हैऔर ढोल के साथ उसका पूरे गाँव में घूमना ,नदी में उतर कर मछलियाँ पकड़ना,घूम घूम कर पास पड़ोस के गाँवों में पूड़ियों की दावतें उड़ाना,दूसरे कुत्तों के साथ संघर्ष जैसी घटनाएं उपन्यास को रोचक और पठनीय बनाती हैं

    


अपने इसी घुमक्कड़पने में बंकू कई जगह मार भी खाता है उसकी शिकायतें भी आती हैं कई बार दूसरे कुत्तों के झुण्ड में फंस कर चोटिल भी होता है एक बार सियारों से भी बचता है लेकिन इन छोटी मोटी घटनाओं से उसके घुमक्कड़ स्वभाव और यायावरी जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन बंकू के इसी मटरगश्ती करने वाले स्वभाव और यायावरी की इच्छा ने एक दिन उसे जंगल में मौत के मुंह में ढकेल दिया वह एक जंगली सूअर से टकरा गया और बुरी तरह घायल हो गया मालिक द्वारा इलाज करवाने पर वह किसी तरह बच तो गया लेकिन उसका एक पैर काफी जख्मी हो चुका था और इसी से उसकी चुस्ती फुर्ती कम हो गई थी वह कभी कभी अकेला बैठा बैठा अपने आस-पास के आदमियों,दूसरे जीवों और उनके व्यवहार के बारे में सोचने लगता है ऐसा लगता है कि वह उनका मूल्यांकन कर रहा हो उपन्यास पढ़ते पढ़ते कई जगह लगने लगता है कि “बंकू” कोई पिल्ला न होकर कोई दार्शनिक बन गया है

  


बंकू को लगा जैसे उसकी जिन्दगी ने ही उससे मुंह फेर लिया होकभी कभी वो बाक़ी कुत्तों को खेलता देख चहकता जरूर पर चोट के कारण वहीँ बैठ जाता उसका जीवन एक जगह बांध कर रह गया था ।-------एक रात बंकू को बैठे बैठे न जाने क्या सूझा,वो उठ कर घर के पीछे नदी के रास्ते पर चल दिया अभी रात ही थी ,सुबह होने में समय था,सब और अँधेरा था नदी के किनारे पहुँच कर पानी की तरफ मुंह करके बंकू घाट पर बैठ गया बहुत देर तक बस नदी को निहारता रहाजैसे खो चुके खुद को ढूँढ़ने की कोशिश कर रहा हो अपने सभी घावों के विचार उसके मन में आ रहे थे,शरीर के भी और जो घाव उसके मन को मिले थे वो भी बहुत देर तक ध्यानमग्न रहने के बाद उसने एक निर्णय लिया....कठोर निर्णय... ।(पृष्ठ-113)

   


“बंकू” के जीवन में घुस चुके इस दार्शनिक ने उसे काफी बदल दिया थावह जीवन से पूरी तरह से निराश हो गया था वह घर छोड़ कर चला गया था अपने दुनिया में होने या अपने अस्तित्व की तलाश में लेकिन इस दार्शनिक भाव ने उसे जीवन के कई नए सबक भी दिए वह धीरे धीरे एक दार्शनिक से एक साधू या सन्यासी के रूप में तब्दील होता गया वह अब दूसरे जीवों को लेकर बहुत दयावान बन गया पक्षियों,गिलहरियों,गायों,बकरियों उनके छौनों से उसे प्रेम भी हो गयाइन सबकी संगत ने उसे बहुत सहनशील,सहिष्णु,उदार और दयावान भी बना दिया था काफी समय इधर-उधर,गाँव दर गाँव भटकने के बाद वह अंततः अपने पुराने घर वापस आ गयालेकिन एक बदले हुए स्वरूप में शिकारी की जगह अब वह सन्यासी बन चुका था

 


अमित तिवारी का यह उपन्यास पढ़ते समय पाठक को यह नहीं महसूस होता है की यह सिर्फ एक पिल्ले की कहानी भर है मनुष्य को पशु पक्षियों के प्रति कितना दयावान होना चाहिए,उनके लिए कितना मैत्रीपूर्ण रवैया हम मनुष्यों का होना चाहिए ,उनके प्रति हमारे क्या कर्तव्य होने चाहिए यह सब कुछ यह उपन्यास हमें सिखाता है और यही संभवतः इस उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है एक बात और “बंकू” उपन्यास जितना बड़ों,प्रौढ़ों को पसंद आएगा उससे कहीं अधिक यह बच्चों और किशोरों,युवाओं को भी पसंद आएगा ऐसा मेरा विशवास है

                               



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डा0 हेमन्त कुमार

समय की परख करती कविताएं

गुरुवार, 23 जनवरी 2025

 

पुस्तक समीक्षा  



कृति :कटघरे के भीतर




समय की परख करती कविताएं



   

0शैलेश पंडित

 

         


          

           

              

डा०हेमन्त कुमार की कविताएं अपने समय की परख करती हुई आगे बढ़ती हैं,जिसमें मां की याद है,चूल्हे में पकती रोटियाँ हैं,चिड़िया,तितलियाँ और लड़कियां हैं,और सभ्यता की दौड़ में रिश्तों के ठूंठ हुए जंगल हैं।बहुत कुछ है जो अतीत में लौटने को विवश करता है।वह अतीत जिसमें रिश्तों की गरमाहट थी,चिड़ियों की हंसती-खेलती,नजदीक आती हुई दुनिया थी।उस जीवन का एक संगीत था,जो समय के हाथों कहीं खो गया।यह खोया हुआ समय,हमें बार-बार उस खोई हुई दुनिया में कहीं लौटा ले जाता है,जो कुछ बेहतर करने की कोशिश में हमारे हाथों से रेत की तरह फिसलता गया है।तो क्या उसे ऐसे ही छोड़ कर हम आगे बढ़ जाएंगे?क्या हम वह सब लौटा नहीं पाएंगे,जिसके चलते उस अतीत का मोहक वर्त्तमान था।हेमन्त कुमार समय के इस दौर को,अतीत के उस वर्तमान से समानान्तर रख कर जीवन जीने के पक्षधर हैं।

    


      हमारे इस दौर की उपलाब्धियाँ कम तो नहीं हैं।लेकिन जो मां की दुनिया थी---वह चूल्हे चौके की दुनिया,आग के भीतर पकती हुई रोटियों की दुनिया,वह आह-कराह और अभावों की दुनिया—उस दुनिया का एक संगीत था,एक ताल-लय थी,एक सोंधी खुशबू थी,जो बार-बार हमें रिश्तों की उस सराबोर करती हुई धार में बहा ले जाती है,जो हमारे इस प्रगतिशील वर्तमान से कहीं अधिक सम्पूर्ण थी।उस आभा मंडल में ले जाती है,जिसके रंग बहुत दूर तक हमारे दौर को आलोकित करते रहेंगे।

    


      हेमन्त मां को याद करते हुए कहते हैं----"ज्यादा कुछ नहीं /सिर्फ एक बार /भट्ठी की आंच में /सिंकी /आलू भरी गरम रोटियां /और टमाटर की चटनी /यही तो मांग रहा। इतना ही नहीं हेमन्त घर के हर सामान यहाँ तक कि घर के कोने में कील पर टंगी सूप में भी अम्मा की स्मृतियाँ खोजते हैं।----कहीं घर के किसी कोने में /कील पर टंगी सूप/उस पर चिपके चावल के दाने/कहते हैं सबसे/यहीं कहीं हैं अम्मा /उन्हें नहीं पसंद /सूप से बिना फटके/चावल यूं ही बीन देना ।”(एक संवाद अपनी अम्मा से )

   


     यही नहीं,शीशे में अपना अक्स देखते हुए,दूर क्षितिज पर निहारते हुए,किसी ‘बार’ में खुशियाँ तलाशते हुए,हर कहीं अम्मा उभर आती हैं।उभर आता है,उनका वह भरा-पूरा,अभावों का झिलमिलाता संसार जिसकी छुवन को हम धो-पोंछ कर भी स्वयं से अलग नहीं कर सकते।उनकी निरंतर आशीष बरसाती हुई,वह प्रार्थनामय छवि भला हमसे अलग कैसे जा सकती है --- “जब भी मैं बैठता हूं /ढलते सूरज के साथ/बालकनी में कुर्सी पर अकेला/मेरी आंखों के सामने/आता है कैमरे का व्युफाइंडर/और उसमें झलकती है/एक तस्वीर /आंगन में   तुलसी की पूजा करती/एक स्त्री की/और कहीं दूर से आती है एक आवाज/ओ मां।” हेमन्त को अपने घर के हर कोने में ...बाथरूम तक में अम्मा की छवियाँ नजर आती हैं ।यह कवि के संवेदनशील मन और परिवार से लगाव का द्योतक है ।इसी कविता की आगे की पंक्तियों में उन्होंने लिखा है  .....”जब भी बच्चे व्यस्त रहते हैं/टी०वी०स्क्रीन के सामने/और मैं बाथरूम में/शेव कर रहा होता हूँ /शीशे के सामने अकेला/अचानक मेरे हाथ हो जाते हैं/फ्रीज/शीशे के फ्रेम पर/डिजाल्व होता है एक फ्रेम और/मेरा मन पुकारता है/ओ मां..... ।”(ओ मां)

   


       हेमन्त कुमार की कविताओं में गौरैयों,तितलियों और लड़कियों के चित्र बार-बार उभरे हैं।और इनके माध्यम से उभरा है ---उमंगों,उत्साहों,का संगीतमय,रंग-बिरंगा संसार।ऐसा लगता है ये एक दूसरे की पूरक हों।जैसे इनमें से कोई लड़ी टूटने पर,रंग-उमंग का यह परिदृश्य टूट कर बिखर जाएगा।नहीं,कुछ भी टूटने नहीं देना है।उसे रूठने नहीं देना है।भले ही सभ्यता ने उनके बसेरे उजाड़ दिए हों।भले ही वह लौह मानव के रूपाकार से भयभीत हो --- हम उन्हें मनाएंगे।सारी दुनिया उन्हें मना रही है।सम्पूर्ण धरती उनकी संगीतमय वापसी की प्रतीक्षा कर रही है ---- “चिड़िया तो आखिर चिड़िया है/उसको बेचारी को कहाँ पता कि हम/ सभ्य हो रहे हैं/और हमारा विकास/पूरी प्रगति पर है।”..(चिड़िया)



       कुछ ऐसे ही भाव उनकी कविता बया आज उदास है में पढ़ा जा सकता है ।.... “बया आज उदास है/नहीं गा रही वह आज/एक भी गाना/नहीं दिया उसने अभी तक /बच्चों को अपने/पानी-दाना।”xxxxx “वह देख रही है बस/एक टक लगातार/निश्चल भयभीत/बेबस और सहमी आंखों से/अपनी और धीरे-धीरे /बढ़ते चले आ रहे /विशालकाय लौहमानव की ओर।”....(बया आज उदास है)



   इसी तरह गौरैया को लेकर उनकी चिंता उनकी गौरैया से शिकायत वाले भाव उनकी गौरैया कविता में दिखाई पड़ता है--- “सुना है इन दिनों/पूरी दुनिया भर में तुम्हें मनाने/आंगन में वापस बुलाने और/तुम्हारी प्रजाति बचने के लिए/गौरैया दिवस मना रहे हैं लोग/तुम्हें वापस बुलाने के ढेरों उपाय/और जतन कर रहे हैं/दुनिया भर के लोग ।”....(गौरैया से )

       


       ‘उडूँगी फिर फिर,‘जागो लड़कियों’, ‘मासूम लड़की, ‘लड़कियाँ’, ‘बेटियां, शीर्षक से व्यक्त हुई कविताओं में हेमन्त रंगों की वही दुनिया आगे बढ़ाते हैं,जो चिड़ियों से शुरू होकर उस विस्तार तक जाती है जहाँ एक और संगीत बजता हुआ मुखर होता है।हमारी दुनिया में ऐसा बहुत कुछ है,जो इस संक्रमण के युग में संजोए बचाए रखने जैसा है,जिसे ये तितलियाँ,ये लड़कियाँ और बेटियां निरंतर रचती जा रही हैं।यह सच है कि हम जिस दुनिया में जी रहे हैं,वहां हादसों के बीच से फिर जिंदगियां रची जाती हैं,जो गाती,गुनगुनाती,खिलखिलाती हुई हमें अगली यात्राओं के लिए तरोताजा कर देती हैं।हम थक-हार कर बैठ नहीं सकते।हमारे समय की दुर्घटनाएं,विकास की अनिवार्य परिणति हैं।लेकिन इस दौड़ में निरंतर जिंदगियों के रचाव का सिलसिला जारी है।

  


     इस रचाव की परिणति हेमन्त की इन कविताओं में जगह-जगह देखी जा सकती है ----“लड़कियाँ हर सुबह/रोपती हैं /सपनों के कुछ पौधे /अपनी हथेलियों पर/चलो सींचो उन पौधों को /डालो कुछ खाद और पानी/बनाओ उनके सपनों को/वटवृक्ष/जो दे सके शीतल छाँव/हम सभी को/उन सभी सपने रोपने वाली /लड़कियों के/हर अपनों को ।.....(लड़कियाँ)...... “बारिश ने भिगोया/धरती को/खुश हुई धरती/इठलाए लोग/पर भीगे पंख मेरे /मैं हुई अपाहिज/लेकिन देखना तुम/मैं उडूँगी फिर और फिर /इतराउंगी फूलों पर ।”.....(उडूँगी फिर फिर )...... “खुली खिड़कियाँ /खुला आसमां/हुलस पड़ी ज्यों /सभी बेटियाँ ।”.....(बेटियां )

   


       और इस रचाव के पीछे चलता हुआ समय का डर।इस डर के भीतर चलता हुआ सृजन ----“जुम्मा जुम्मा/आठ नौ बरस की उमर में ही/पूरी कालोनी की/खबरों को मिर्च मसाला लगाकर /आंटियों से बतियाती/पूरी दादी अम्मा /बन गई /वह मासूम /वह भोली सी लड़की ।”.......(मासूम लड़की).... लड़कियों की सुरक्षा को लेकर हेमन्त के मन में उठने वाली चिंताओं और भावनाओं को हम उनकी कविता तितलियाँ की इन पंक्तियों में देख सकते हैं ---“सुबह की नर्म धूप के/फाहों के बीच से/देखते हुए इन नन्हीं सुन्दर/तितलियों को/मन में पैठ जाता है एक/डर अनजाना सा कभी कभी /कहीं कोई गिरगिट बिसखोपडों/या फिर शिकारी पक्षियों का/निरंकुश झुण्ड घात न लगाए हो/इन मासूम कोमल तितलियों के लिए ।.....(तितलियाँ )

     


     समय की इस दौड़ में हमने जो दुनिया बनाई है,उसके परिणामों से हम पूरी तरह अवगत हैं।ऐसे में हर कोई अपने खोए हुए उस अतीत में लौटना चाहता है,जहां सुख-शांति और संभावनाएं थीं।जहां आकांक्षाएं और उम्मीदें थीं।उसे छोड़ कर सभ्यता की दौड़ में हम यहां तक आ पहुंचे कि मानव ,लौह मानव होकर रह गया है ।वह अपने सृजन के सामने बौना होता गया है ।उसे चारों ओर से अपने अस्तित्व का संकट दिखाई देने लगा है ।अंततः क्या होगा इस दौड़ का,इस विवशता से भरे हुए विकास का ?हेमन्त अपनी कविताओं में यह सब बयान करते हुए सवाल उठाते हैं कि अंततः हम कहां आ गए----“उसे तो दिख रहा है/दूर-दूर तक फैला हुआ/कंक्रीट और इस्पात का /एक अंतहीन जंगल।पिघले हुए /काले तारकोल की बहती नदियाँ /और धरती के सीने में /उड़ेला जा रहा/खौलता हुआ इस्पात।”...(चिड़िया) “वह देख रही है बस/एक टक/लगातार /निश्चल भयभीत /बेबस और /सहमी हुई आंखों से /अपनी ओर धीरे-धीरे /बढ़ते चले आ रहे/विशालकाय /लौह मानव की ओर।”...(बया आज उदास है )......“कितने और भी पहाड़ हैं/जिनकी ऊंचाइयों को/नापने के लिए /पहले उसे /अपने स्वयं के/बौनेपन को पहचानना होगा।”..(काले पहाड़ों के बीच )

   


         यह जो कुछ हो रहा है,क्या आज के मनुष्य को यह मान लेना होगा कि यही हमारी नियति है ?यही है हमारे समय की अनिवार्य परिणति ?क्या इसे ऐसे ही स्वीकार करते जाना हमारी यात्रा का असंभावित विकल्प होगा ?क्या उसमें हिस्सेदारी के सिवा हमारी कोई दूसरी भूमिका नहीं हो सकती?हेमन्त यथा स्थिति बयान करते हैं।---- “इस जंगल में/हर शाम/एक कहर बरपा होता है।...बूट रौंदते हैं/जंगल के सीने को /टूटती हैं /कुछ व्हिस्की और रम की/खाली बोतलें/और एक मासूम पेंडुकी/दम तोड़ देती है/तड़फड़ा कर/चंद खुरदुरे हाथों के बीच ।”....(नियति) या फिर हम इस नियति के चक्र को हेमंत की इस कविता में भी देख सकते हैं ---“आओ तुम भी आओ /शामिल हो जाओ /घुनों की लम्बी कतार में/और कुतर डालो/छलनी कर डालो पूरी तरह/इस जिस्म को/इन भावशून्य आंखों को/और नष्ट कर डालो मेरे होने के हर सबूत को।”(काल चक्र)

        


         नहीं,यह सच नहीं कि नियति हमें हराकर,हमारे समय को अपने क्रूर हाथों से विकृत कर जाए।कभी-कभी नियति का ध्वंस ,कुछ क्षणों के लिए हमें हताश और जड़ कर सकता है।और अगले ही पल हम उसे अपने वजूद से झटक कर ,इस दुनिया में ऐसा बहुत कुछ रच सकते हैं,जो इस बौनेपन ,इस लौह मानव और छलनी होते समय से मुठभेड़ कर सकता है।इसके लिए आवश्यक नहीं की हमें किन्हीं विराट हाथों की जरूरत हो।हम जहां भी हैं,जिस स्थिति में भी हैं,समय के इस दमन के विरुद्ध उठ खड़े हों तो सभ्यता का यह दौर अपने आप यह जड़ता,यह विद्रूप खो देगा।डा०हेमन्त कुमार की कविताओं में यह मुठभेड़ कई धरातलों पर दिखलाई देती है।‘खुद से बतियाती औरत, ‘सपने दर सपने’, ‘किसी दिन अचानक’, ‘तितलियाँ, जैसी कविताओं में यह कोशिश सहज ही दिखाई देती है

    


       डा०हेमन्त कहते हैं----“कभी थकती नहीं/कभी झुकती नहीं/हजारों कामों का बोझ/अपने कन्धों पर लादे /चहरे पर बिना कोई शिकन लाए/बड़े ही करीने से /घर के सारे कामों से/सारा सारा दिन बतियाती रहती है/ये सुन्दर सलोनी औरत।”xxxxx “घर की चौहद्दी से बाहर भी/जब निकलती है ये औरत/दुनिया के हर दर्द को/समेट लेती है अपनी मुट्ठी में/अपने मजबूत इरादों से/नापाक इरादों को कर देती है/नेस्तनाबूद ।”.....(खुद से बतियाती औरत )

  


     हेमन्त अपनी एक दूसरी कविता में कहते हैं ----“सपनों के साकार होने की उम्मीद में/हम भी दौड़ाते हैं रेल/लखनऊ से मुंबई/मुम्बई से इटारसी ।”xxxx “सुबह से शाम/शाम से रात/सबके सपनों को बंद करके/अपनी नन्हीं सी ढोलक की थाप में ।”....(सपने दर सपने)

  


         “कभी किसी दिन/किसी वक्त/अचानक ही उगेंगे/कुछ खूबसूरत अक्षर/रंग बिरंगे फूल बनकर/इस बियाबान जंगल की/कठोर धरती पर ।फिर बन जाएंगे वो शब्द/संगीत के स्वर/किसी झरने की/कलकल में समाहित होकर ।......(किसी दिन अचानक)

       


    यह मुठभेड़ संगीत ही नहीं,सौन्दर्य भी रचती है।यह पूरी की पूरी फूलों की घाटी रच देती है,जिनके भीतर उतर कर तितलियों की तमन्नाएं,सपने और उड़ान अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं—“नीले पीले लाल रंगों वाले /यूनिफार्म/कन्धों पर टंगे कुछ हल्के/कुछ भारी थैलों में बंद/ऊंची उड़ान भरने के सपने/आंखों में फूलों की/रंगीन घाटियों की तलाश/चेहरों पर कुछ कर गुजरने की तमन्ना/और अटूट आत्मविश्वास भी/बढ़ाता है/इन कोमल तितलियों का सौन्दर्य ।”.....(तितलियाँ)

    


        हेमन्त कुमार की कविताएं ढेरों विविधता लिए हुए हैं।इन कविताओं में श्रमिक हैं,श्रमिकों के बच्चे हैं,हमारे समय के बड़े बूढ़े हैं,बारिशें हैं,मुम्बई है।और अंततः है—हमारे वजूद की तलाश,जिसे गढ़ने,रचने,रंग देने और  खोजने में यह पूरा समय,और इस समय का मनुष्य बहुत तेजी से कहीं स्वप्नवत तो कहीं अपनी निष्ठा से आंखें खोले हुए निरंतर दौड़ रहा है।हेमन्त की कविताएं अपने समय का वजूद ढूँढ़ते आदमी की कोशिशों की कविताएं हैं।और यह सच है कि इस कोशिश में बच्चे सबसे आगे हैं ।भले ही उन्हें यह पता न हो कि वे किस तलाश की और बढ़ रहे हैं?

    


      इस विविधता को बारिश की बूंदों की तरह,उपवन के फूलों और आकाश के नक्षत्रों की तरह हम देख,पढ़ और छू सकते हैं ।हेमन्त बच्चों की फिक्र करते हैं----“उसकी उमर ग्यारह साल है/वह अपना दिन शुरू करता है/चाय की चुस्कियों से/और रात/समाप्त करता है/बीड़ी के धुएं में ।”....(उसकी उमर)

  


        “मैं बनाना चाहता हूं/एक बहुत बड़ी दुनिया/.....जहाँ हर बच्चे के हाथ में हों/रंग बिरंगे गुब्बारे/रूई और ऊन से बने/सुन्दर खिलौने/हर बच्चे के कन्धों पर हो/एक बैग प्यारा सा/बैग में हों ढेरों नई नई कहानियां ।”(उनकी दुनिया).... “सबके/दुनिया भर के बच्चों के/प्यारे सांताक्लाज /एक बार आप/हमारी बस्ती में जरूर आना/.......हमें नहीं चाहिए/कोई उपहार/.....हमें तो बस/किसी बच्चे की/पुरानी फटी गुदड़ी/या फिर कोई/उतरन ही दे देना/जो इस हाड़ कंपाती ठंढक में/हमें ज़िंदा रख सके ।”.....(सांताक्लाज से).... “मैं ढूँढ़ता रहता हूं बचपन को/मुहल्ले की सड़कों पर/पार्कों में/गलियों में/चबूतरों पर/पर कमबख्त बचपन/मुझे कहीं मिलता ही नहीं ।”....(कहां खो गया बचपन)

     


         हेमन्त फ़िक्र करते हैं उन बूढ़े दम्पत्तियों की,जिनकी हंसती-खेलती विरासत,उस विरासत के पहरेदार नौकरशाही और आतंकवाद के हाथों मार दिए जाते हैं।कहीं पुल टूट जाता है,रेलगाड़ियाँ पटरी से उतर जाती हैं,तो कहीं बमों के धमाके सैकड़ों आंखों के सपने छीन लेते हैं।समय की इस दौड़ में वरिष्ठ नागरिकों के जो हालात हैं,वह सारी दुनिया में चिंता का विषय है।कुछ बूढ़ी आंखें अपने बच्चों का रास्ता निहार रही होती हैं कि राजधानी से बम ब्लास्ट की खबरें आती हैं----“बेचारे हजारों हजार बूढ़े दंपत्ति रह गए स्तब्ध/उनके सुनहरे सपने/बिखर गए एक धमाके के साथ/कुछ बूढ़े दंपत्ति घिसटते पिसटते भागे/गाँव के नजदीकी पुलिस थानों की ओर ।”....(बूढ़े दंपत्ति)

        


        हेमन्त कुमार की रचनात्मक परिधि में आज की वह सम्पूर्ण दुनिया है,जिसके आकलन से इस देश का सम्पूर्ण भूगोल कविता के शब्दों में मुखरित हो जाता है ।उनमें बारिशें हैं,मुम्बई है,यात्राएं और सपने हैं ।बारिश जो प्रेम का बीज बोती है तो हरखू की चिंता भी बढ़ा देती है -----“बारिश की रेशमी /फुहारों का स्पर्श/सहला जाता है/हौले से/तुम्हारे पास होने के /एहसास को ।”....(बारिश-2)...वहीं दूसरी और बारिश का एक अलग रूप भी हेमन्त के कवि मन को झकझोरता है ।“बारिश का मतलब होता है/हरखू की चिंता /इस बात की कि/कल जब सबके खेतों में चलेगा हल/तो कैसे जोतेगा वह खेत/बिना बैलों के/कहाँ से आएगा बीज बोने के लिए ।”.......(बारिश का मतलब)

   


        हेमन्त इन कविताओं में केवल सवाल ही नहीं उठाते,वह यात्राओं और सपनों के माध्यम से वह दुनिया भी रचते हैं,जो समकालीन समय से जूझते हुए आदमी का गंतव्य हो सकती है रचनाकार का काम,समय के सवालों को उठाकर गायब हो जाना भर नहीं है,वह समय के विद्रूप,के विरुद्ध विकल्प रचने की भूमिका में भी होता है।हेमन्त अपनी कविताओं से किसी विकल्प का दावा नहीं करते।लेकिन उनके भीतर का कवि अपने समय-समाज की गहरी पड़ताल करता हुआ,पाठक को उन मोड़ों तक ले जाता है,जहाँ विकल्प की ढेरों संभावनाएं हैं।हेमन्त इन्हीं संभावनाओं के कवि हैं।यह संग्रह शुरू से अंत तक इन संभावनाओं से भरपूर है ।

             

                          

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शैलेश पंडित


जन्म :15 जून, 1955 को


शिक्षा:इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम. ए. डी. फिल.।


शुरु में पत्रकारिता से जुड़े रहे।फिर एक वर्ष तक बिड़‌लासागर स्कूल, पोरबन्दर मैं ट्रेंड ग्रेजुएट टीच।लगभग दस वर्षों तक सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के एम. एम. जी. कॉलेज में हिन्दी विभाग में  विभागाध्यक्ष।साथ ही विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर प्राध्यापक।सन् 1991 बैच में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आई.बी.एस. और दूरदर्शन में सहायक केन्द्र निर्देशक के रूप में चयन के उपरान्त देश के कई प्रमुख केन्द्रों में निदेशक के रूप में कार्य।सन् 2011 से दूरदर्शन महानिदेशालय नई दिल्ली में उपमहानिदेशक।अन्तत: जून, 2015 में उस पद से सेवा-निवृति।


कविता, से लेखन की शुरुआत।बाद में इलाहाबाद के वातावरण में साहित्य की व्यापक दीक्षा।फिर कहानी और उपन्यास लेखन की यात्रा आरम्भ हुई।अपनी रचनाओं में लोकराग के प्रति गहरी आस्था ।


कृतियाँ: देश जिन्दाबाद, बन्धु - बिरादर (उपन्यास), वन्दे  भगवती, पहला फागुन (कहानी संग्रह), सान्ताक्तगज (कविता संग्रह) गुजराती की प्रतिनिधि कहानियां, भाग-1और भाग-2 का चयन,सम्पादन। सम्प्रति:लखनऊ में रह कर स्वतन्त्र लेखन।


संपर्क-8809000593

 

 

 

 

लेबल

. ‘देख लूं तो चलूं’ "आदिज्ञान" का जुलाई-सितम्बर “देश भीतर देश”--के बहाने नार्थ ईस्ट की पड़ताल “बखेड़ापुर” के बहाने “बालवाणी” का बाल नाटक विशेषांक। “मेरे आंगन में आओ” ११मर्च २०१९ ११मार्च 1mai 2011 2019 अंक 48 घण्टों का सफ़र----- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस अण्डमान का लड़का अनुरोध अनुवाद अपराध अपराध कथा अभिनव पाण्डेय अभिभावक अमित तिवारी अम्मा अरुणpriya अर्पणा पाण्डेय। अशोक वाटिका प्रसंग अस्तित्व आज के संदर्भ में कल आतंक। आतंकवाद आत्मकथा आनन्द नगर” आने वाली किताब आबिद सुरती आभासी दुनिया आश्वासन इंतजार इण्टरनेट ईमान उत्तराधिकारी उनकी दुनिया उन्मेष उपन्यास उपन्यास। उम्मीद के रंग उलझन ऊँचाई ॠतु गुप्ता। एक टिपण्णी एक ठहरा दिन एक तमाशा ऐसा भी एक बच्चे की चिट्ठी सभी प्रत्याशियों के नाम एक भूख -- तीन प्रतिक्रियायें एक महत्वपूर्ण समीक्षा एक महान व्यक्तित्व। एक संवाद अपनी अम्मा से एल0ए0शेरमन एहसास ओ मां ओडिया कविता ओड़िया कविता औरत औरत की बोली कंचन पाठक। कटघरे के भीतर कटघरे के भीतर्। कठपुतलियाँ कथा साहित्य कथावाचन कर्मभूमि कला समीक्षा कविता कविता। कविताएँ कवितायेँ कहां खो गया बचपन कहां पर बिखरे सपने--।बाल श्रमिक कहानी कहानी कहना कहानी कहना भाग -५ कहानी सुनाना कहानी। काफिला नाट्य संस्थान काल चक्र काव्य काव्य संग्रह किताबें किताबों में चित्रांकन किशोर किशोर शिक्षक किश्प्र किस्सागोई कीमत कुछ अलग करने की चाहत कुछ लघु कविताएं कुपोषण कैंसर-दर-कैंसर कैमरे. कैसे कैसे बढ़ता बच्चा कौशल पाण्डेय कौशल पाण्डेय. कौशल पाण्डेय। क्षणिकाएं क्षणिकाएँ खतरा खेत आज उदास है खोजें और जानें गजल ग़ज़ल गर्मी गाँव गीत गीतांजलि गिरवाल गीतांजलि गिरवाल की कविताएं गीताश्री गुलमोहर गौरैया गौरैया दिवस घर में बनाएं माहौल कुछ पढ़ने और पढ़ाने का घोसले की ओर चिक्कामुनियप्पा चिडिया चिड़िया चित्रकार चुनाव चुनाव और बच्चे। चौपाल छिपकली छोटे बच्चे ---जिम्मेदारियां बड़ी बड़ी जज्बा जज्बा। जन्मदिन जन्मदिवस जयश्री राय। जयश्री रॉय। जागो लड़कियों जाडा जात। जाने क्यों ? जेठ की दुपहरी टिक्कू का फैसला टोपी ठहराव ठेंगे से डा० शिवभूषण त्रिपाठी डा0 हेमन्त कुमार डा०दिविक रमेश डा0दिविक रमेश। डा0रघुवंश डा०रूप चन्द्र शास्त्री डा0सुरेन्द्र विक्रम के बहाने डा0हेमन्त कुमार डा0हेमन्त कुमार। डा0हेमन्त कुमार्। डॉ.ममता धवन डोमनिक लापियर तकनीकी विकास और बच्चे। तपस्या तलाश एक द्रोण की तितलियां तीसरी ताली तुम आए तो थियेटर दरख्त दरवाजा दशरथ प्रकरण दस्तक दिशा ग्रोवर दुनिया का मेला दुनियादार दूरदर्शी देश दोहे द्वीप लहरी नई किताब नदी किनारे नया अंक नया तमाशा नयी कहानी नववर्ष नवोदित रचनाकार। नागफ़नियों के बीच नारी अधिकार नारी विमर्श निकट नित्या नित्या शेफाली नित्या शेफाली की कविताएं नियति निवेदिता मिश्र झा निषाद प्रकरण। नेता जी नेता जी के नाम एक बच्चे का पत्र(भाग-2) नेहा शेफाली नेहा शेफ़ाली। पढ़ना पतवार पत्रकारिता-प्रदीप प्रताप पत्रिका पत्रिका समीक्षा परम्परा परिवार पर्यावरण पहली बारिश में पहले कभी पहले खुद करें–फ़िर कहें बच्चों से पहाड़ पाठ्यक्रम में रंगमंच पार रूप के पिघला हुआ विद्रोह पिता पिता हो गये मां पिताजी. पितृ दिवस पुण्य तिथि पुण्यतिथि पुनर्पाठ पुरस्कार पुस्तक चर्चा पुस्तक समीक्षा पुस्तक समीक्षा। पुस्तकसमीक्षा पूनम श्रीवास्तव पेड़ पेड़ बनाम आदमी पेड़ों में आकृतियां पेण्टिंग प्यारा कुनबा प्यारी टिप्पणियां प्यारी लड़की प्यारे कुनबे की प्यारी कहानी प्रकृति प्रताप सहगल प्रतिनिधि बाल कविता -संचयन प्रथामिका शिक्षा प्रदीप सौरभ प्रदीप सौरभ। प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक शिक्षा। प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव। प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव. प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव। प्रेरक कहानी फ़ादर्स डे।बदलते चेहरे के समय आज का पिता। फिल्म फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति फ़ेसबुक बंकू बंधु कुशावर्ती बखेड़ापुर बचपन बचपन के दिन बच्चे बच्चे और कला बच्चे का नाम बच्चे का स्वास्थ्य। बच्चे पढ़ें-मम्मी पापा को भी पढ़ाएं बच्चे। बच्चों का विकास और बड़ों की जिम्मेदारियां बच्चों का आहार बच्चों का विकास बच्चों को गुदगुदाने वाले नाटक बदलाव बया बहनें बाघू के किस्से बाजू वाले प्लाट पर बादल बारिश बारिश का मतलब बारिश। बाल अधिकार बाल अपराधी बाल दिवस बाल नाटक बाल पत्रिका बाल मजदूरी बाल मन बाल रंगमंच बाल विकास बाल साहित्य बाल साहित्य प्रेमियों के लिये बेहतरीन पुस्तक बाल साहित्य समीक्षा। बाल साहित्यकार बालवाटिका बालवाणी बालश्रम बालिका दिवस बालिका दिवस-24 सितम्बर। बीसवीं सदी का जीता-जागता मेघदूत बूढ़ी नानी बेंगाली गर्ल्स डोण्ट बेटियां बैग में क्या है ब्लाइंड स्ट्रीट ब्लाग चर्चा भजन भजन-(7) भजन-(8) भजन(4) भजन(5) भजनः (2) भद्र पुरुष भयाक्रांत भारतीय रेल मंथन मजदूर दिवस्। मदर्स डे मनीषियों से संवाद--एक अनवरत सिलसिला कौशल पाण्डेय मनोविज्ञान महुअरिया की गंध मां माँ मां का दूध मां का दूध अमृत समान माझी माझी गीत मातृ दिवस मानस मानस रंजन महापात्र की कविताएँ मानस रंजन महापात्र की कवितायेँ मानसी। मानोशी मासूम पेंडुकी मासूम लड़की मुंशी जी मुद्दा मुन्नी मोबाइल मूल्यांकन मेरा नाम है मेराज आलम मेरी अम्मा। मेरी कविता मेरी रचनाएँ मेरे मन में मोइन और राक्षस मोनिका अग्रवाल मौत के चंगुल में मौत। मौसम यात्रा यादें झीनी झीनी रे युवा युवा स्वर रंगबाजी करते राजीव जी रस्म मे दफन इंसानियत राजीव मिश्र राजेश्वर मधुकर राजेश्वर मधुकर। राधू मिश्र रामकली रामकिशोर रिपोर्ट रिमझिम पड़ी फ़ुहार रूचि लखनऊ लगन लघुकथा लघुकथा। लड़कियां लड़कियां। लड़की लालटेन चौका। लिट्रेसी हाउस लू लू की सनक लेख लेख। लेखसमय की आवश्यकता लोक चेतना और टूटते सपनों की कवितायें लोक संस्कृति लोकार्पण लौटना वनभोज वनवास या़त्रा प्रकरण वरदान वर्कशाप वर्ष २००९ वह दालमोट की चोरी और बेंत की पिटाई वह सांवली लड़की वाल्मीकि आश्रम प्रकरण विकास विचार विमर्श। विश्व पुतुल दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस विश्व फोटोग्राफी दिवस. विश्व रंगमंच दिवस व्यंग्य व्यक्तित्व व्यन्ग्य शक्ति बाण प्रकरण शब्दों की शरारत शाम शायद चाँद से मिली है शिक्षक शिक्षक दिवस शिक्षक। शिक्षा शिक्षालय शैलजा पाठक। शैलेन्द्र श्र प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव स्मृति साहित्य प्रतियोगिता श्रीमती सरोजनी देवी संजा पर्व–मालवा संस्कृति का अनोखा त्योहार संदेश संध्या आर्या। संवाद जारी है संसद संस्मरण संस्मरण। सड़क दुर्घटनाएं सन्ध्या आर्य सन्नाटा सपने दर सपने सफ़लता का रहस्य सबरी प्रसंग सभ्यता समय समर कैम्प समाज समीक्षा। समीर लाल। सर्दियाँ सांता क्लाज़ साक्षरता निकेतन साधना। सामायिक सारी रात साहित्य अमृत सीता का त्याग.राजेश्वर मधुकर। सुनीता कोमल सुरक्षा सूनापन सूरज सी हैं तेज बेटियां सोन मछरिया गहरा पानी सोशल साइट्स स्तनपान स्त्री विमर्श। स्मरण स्मृति स्वतन्त्रता। हंस रे निर्मोही हक़ हादसा हादसा-2 हादसा। हाशिये पर हिन्दी का बाल साहित्य हिंदी कविता हिंदी बाल साहित्य हिन्दी ब्लाग हिन्दी ब्लाग के स्तंभ हिम्मत हिरिया होलीनामा हौसला accidents. 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