पिता होने का मतलब-----
रविवार, 21 जून 2015
यह लेख मैंने 2011 में हिन्दी के प्रतिष्ठित अखबार "जनसन्देश टाइम्स" की कवर स्टोरी के रूप में लिखा था। आज पितृ दिवस के उपलक्ष्य में इसे पुनः प्रकाशित कर रहा हूं।
पिता होने का
मतलब-----
पितृ प्रतिमापन्ने प्रीयन्ते
सर्व देवताः॥
अर्थात पिता स्वर्ग
हैं,पिता ही धर्म हैं,पिता ही सबसे बड़ी तपस्या हैं।यदि हम अपने पिता को खुश और
सन्तुष्ट रखेंगे तो सभी देवता भी हमसे सन्तुष्ट और प्रसन्न रहेंगे।
‘फ़ादर्स डे’ यानि पितृ दिवस। इस दिन को पूरी दुनिया में लोग
अपने पिता या पिता समान अन्य व्यक्तियों को उचित सम्मान देने के लिये यह दिवस मनाते
रहे हैं। इस दिन बच्चे अपने पापा,डैड,बाबू जी के लिये तरह तरह के उपहार ले कर
उन्हें देते हैं ताकि वो प्रसन्न रहें।गर्व महसूस करें।खुद को सम्मानित महसूस
करें।यह दिन बहुत महत्वपूर्ण है।बच्चों के लिये भी और सभी पिताओं के लिये भी।खास
बात यह भी है कि फ़ादर्स डे यानि पितृ दिवस
या पिताओं को सम्मान देने का यह दिन मनाते हुये 104 वर्ष पूरे हो गये।लेकिन हममें
से बहुत कम लोग ही फ़ादर्स डे के इतिहास या इसके पीछे छिपी कहानी को जानते होंगे।
दअस्ल फ़ादर्स डे की शुरुआत
वाशिंगटन के स्पोकेन शहर की एक महिलाने की थी।सोनोरा स्मार्ट डोड नाम की इस महिला के दिमाग में पहली बार यह बात
1909 में आई।सोनोरा की मां की मृत्यु जब सोनोरा 16 साल की थी तभी हो गई।ऐसे
में उसके पिता ही उसके लिये सब कुछ थे।वह अपने पिता से ही हमेशा बातचीत करती। 1909में
सोनोरा को लगा कि उसके पिता उसके जीवन के लिये कितने विशेष हैं।वो उसके पिता ही थे
जिन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपनी बेटी का जीवन संवारने के लिये ही जीवन
में कितने समझौते किये,ढेरों कष्ट उठाये,रातों की नींद हराम की।सिर्फ़ अपनी प्यारी
बेटी सोनोरा के लिये।जब पिता ने अपनी बेटी के लिये इतना कुछ किया तो बेटी ने भी
अपने जीवन में पिता के महत्व और भूमिका को महसूस किया।
चूंकि सोनोरा के पिता का जन्म जून माह में ही
हुआ था इसीलिये सोनोरा ने स्पोकेन,वाशिंगटन में ही पहला फ़ादर्स डे 19जून1910 को
मनाने का फ़ैसला किया।लगभग उसी समय अमेरिका के कई अन्य क्षेत्रों और राज्यों में भी
फ़ादर्स डे मनाने की शुरुआत हुयी।इसके लगभग 14 सालों के बाद तत्कालीन अमेरिकी
राष्ट्रपति काल्विन कोलीज(Calvin Coolidge) ने 1924 में हर जून के तीसरे रविवार को फ़ादर्स डे मनाने की विधिवत
घोषणा की।और धीरे धीरे यह पितृ दिवस पूरे विश्व में मनाया जाने लगा।
अगर हम अपने देश भारत के सन्दर्भ
में पितृ दिवस मनाने की बात करें तो हमें यहां के इतिहास और सामाजिक
परिवेश,सामाजिक संरचना को समझना होगा।वैदिक काल से ही हमारे समाज का आधार
परिवार था।यह परिवार उस समय पितृसत्तात्मक यानि कि पिता के प्रभुत्व वाले होते थे।यही
पितृसत्तात्मक परिवार हमारे यहां ही नहीं पूरे विश्व में आज भी हैं।वैदिक काल में
परिवार का मुखिया पिता होता था। पिता के अधिकार असीमित थे। परिवार के किसी भी
सदस्य को किसी भी गलती पर दण्ड देना उसके अधिकार में था।ॠगवेद में कहीं पर ऐसा भी
उल्लेख है कि एक पिता ने अपने बेटे की किसी गलती पर उसे अंधा तक कर दिया था। वरुण
सूक्त के शुनःशेष के आख्यान से भी कुछ ऐसा ही निष्कर्ष निकलता है कि कोई पिता अपने
पुत्र को आवश्यकता पड़ने पर बेच भी सकता था।उत्तर वैदिक काल की बात करें तो ऐतरेय
ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीर्गत ने अपने पुत्र को 100 गायें लेकर बलि के लिये
बेच दिया था।इसी
तरह महामुनि विश्वामित्र ने भी अपने 50 पुत्रों को आज्ञा न मानने के कारण घर से
निकाल दिया था।
लेकिन ये सारे उदाहरण अपवाद और परिस्थिति विशेष में लिये गये निर्णय थे।इनके
आधार पर हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि पिता उस समय अपने बच्चों से प्रेम नहीं करता
था।बल्कि ये उदाहरण मैंने यह बात स्पष्ट करने के लिये दिए हैं कि प्राचीन काल से
ही हमारा समाज पितृसत्तात्मक रहा है।जहां पिता ही सर्वोपरि होता था।पूरे कुनबे के
ऊपर उसी का एक छत्र शासन रहता था।लेकिन इसी के साथ ही पूरे परिवार
बेटे,बेटी,पत्नी,मां-बाप सभी को पालने पोसने,सबके भरण पोषण,सुरक्षा की जिम्मेदारी
भी पिता की होती थी।जहां पिता के ऊपर इतनी सारी जिम्मेदारियाँ थीं तो उसे दण्ड
देने का अधिकार मिलना स्वाभाविक ही था। लेकिन उसी इतिहास के एक उदाहरण से यह बात
भी साफ़ हो जाती है कि किसी पिता के अन्दर अपने पुत्र के लिये कितना अधिक स्नेह और
प्यार होता था।आप बाबर और हुमायूं को याद करिये।जब हुमायूं भयंकर रूप से बीमार पड़ा
और उसके जीवित बचने की कोई उम्मीद नहीं थी।ऐसे में बाबर हुमायूं की पलंग के
13चक्कर लगाकर ईश्वर से प्रार्थना करके खुद बीमार हो गया और हुमायूं स्वस्थ हो
गया।यद्यपि वैज्ञानिक दृष्टि से यह बात सही नहीं मानी जा सकती लेकिन यदि हम
मूल्यों और मानवीय प्रेम की दृष्टि से इस घटना को देखें तो बाबर के दिल में
हुमायूं के प्रति उसके असीमित प्यार और ममत्व की झलक साफ़ दिखाई देगी।
इतना ही नहीं
यह घटना इस बात को भी पुष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि पिता किसी परिवार के लिये
सिर्फ़ एक कठोर शासक ही नहीं होता बल्कि उस की हर विपत्ति को रोकने वाले छत्र का भी
काम करता है।
यह तो
हुई बात फ़ादर्स डे की शुरुआत,हमारे पितृसत्तात्मक समाज और
पारिवारिक ढांचे की।अब विचारणीय मुद्दा यह है कि जिस
पित्तृसत्तात्मक समाज में हम आज भी रह रहे हैं वहां फ़ादर्स डे मनाने का औचित्य
क्या है?इस बात का सीधा जवाब है कि इसका औचित्य है।और इसके पीछे बहुत सारे कारण
हैं।ये कारण भी बहुत साफ़ और स्पष्ट हैं।
हमारी बदलती हुयी सामाजिक,राजनैतिक और
आर्थिक परिस्थितियां और उनके प्रभाव से बदलते जा रहे जीवन मूल्य।इसे अगर हम थोड़ा
सरल ढग से कहें तो
पहले के समाज में पिता धन कमाकर लाता था।परिवार चलाता था।और
मां के ऊपर बच्चों की देखभाल,उसके विकास,शिक्षा दीक्षा,बीमारी आरामी,पालन पोषण हर
चीज की जिम्मेदारियाँ थीं।जबकि आज ऐसा नहीं है हमारे समाज की स्त्रियॉ भी आज घरों
की चहारदीवारी से बाहर निकल चुकी हैं।वह भी विकास के हर कार्य में पुरुषों के साथ
चल रही हैं। ऐसे में परिवार में दोनों की जिम्मेदारियों में भी बदलाव आना
स्वाभाविक है। अब परिवार को चलाने वाला सिर्फ़ पिता ही नहीं मां भी है।जो पिता के
हर कार्य में सहयोगी की भूमिका निभा रही
है।और इन दोनों के कार्यों और जिम्मेदारियों का असर बच्चों पर भी आना
स्वाभाविक है।
इसका असर
परिवार के बच्चों पर कहीं पाज़िटिव पड़ रहा है तो कहीं नेगेटिव।पाज़िटिव मतलब सीधे
शब्दों में कहें तो बच्चे अच्छे बन रहे हैं।नेगेटिव का मतलब बच्चे बिगड़ रहे हैं।
जहाँ असर पाज़िटिव है वहाँ तो सब ठीक ठाक है।लेकिन जहां माँ बाप दोनों के बाहर
निकलने से बच्चे बिगड़ रहे है वहाँ परिवार में थोड़े बिखराव की हालत भी पैदा हो रही
है।और हमें इस बिखराव को रोकना पड़ेगा। इसके लिये माँ तो पूरी तरह कमर कस कर हर
मोर्चे पर तैयार है। लेकिन पिता…पिता शायद आज भी वैदिक काल से चले आ रहे अपने वजूद
को छोड़ना नहीं चाहता।लेकिन पिताओं को भी ऐसा करना ही होगा परिवार के हित में।अन्यथा
परिवार का ढांचा भौतिकता और आर्थिक विकास की दौड़ में कभी भी ढह सकता है। शायद 1910
में अमेरिका की सोनोरा ने सोचा भी नहीं होगा कि जिस फ़ादर्स डे का आयोजन उसने अपने
भावुक,सज्जन और सहृदय पिता के जन्मदिवस पर किया था वह किसी समय पूरे समाज की ज़रूरत
बन जायेगा।
आज के
बदलते परिवेश और समय में हमें परिवार रथ के दो मुख्य पहियों- पिता और माँ की
भूमिका और ज़िम्मेदारियों का फ़िर से मूल्यांकन करने की ज़रूरत है। अब बच्चों को भी
शायद कठोर अनुशासन,हमेशा चुप एवं गंभीर रहने वाले पिता की छवि स्वीकार्य नहीं है।
जब माँ भी नौकरी करने जा रही है और पिता भी तो दोनों को ही घर की भी ज़िम्मेदारियाँ
साथ साथ निभानी पड़ेंगी। चाहे वह बच्चों को नहलाना धुलाना हो, स्कूल के लिये तैयार
करना हो,शिशु को बोतल से दूध पिलाना हो या फ़िर शिशु की हगीज़ डायपर धोना। यानि कि
बच्चे के पैदा होने से वयस्क होने तक उसके पालन पोषण की सारी ज़िम्मेदारियों को अब
पिता को भी निभाना ही पड़ेगा। और जहाँ तक मैं समझता हूँ इन कामों में कोई शर्म आने
जैसी बात नहीं है।
बहुत से
पिताओं ने अपनी इन ज़िम्मेदारियों को सहर्ष स्वीकार कर लिया है। बहुतों को यह सब
करने या दोस्तों को बताने में झिझक या शर्म आती है।जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये।भाई
मेरा सीधा सा प्रश्न यह है कि जब पत्नी या माँ स्कूल/बैंक की लाइन में लग कर बच्चे
की फ़ीस जमा कर सकती है,उसे स्कूल पहुँचा सकती है तो आप घर पर बच्चे का कपड़ा साफ़
करने या उसका टिफ़िन तैयार करने की ज़िम्मेदारी क्यों नहीं निभा सकते?
दूसरी
बात,जब आप अपने बच्चों से ये उम्मीद करते हैं कि वे आपके हर आदर्श पर चलें,आपकी
आर्थिक परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को ढालें,समाज में आपकी नाक ऊँची करें,स्कूल
में अव्वल आकर आपकी इज़्ज़त बढ़ाये तो आपका भी तो उनके प्रति कुछ फ़र्ज़ कुछ ज़िम्मेदारी
बनती है।आज के परिवेश में आपके द्वारा पैसा कमा कर ही देना पर्याप्त नहीं होगा।आपको
अपने बच्चे के विकास और बेहतरी के लिये बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।उसके ऊपर सिर्फ़
कठोर अनुशासन लागू करके ही आप उसका जीवन नहीं संवार सकेंगे। उसका जीवन संवारने के
लिये पिता को भी अब उसका दोस्त,उसका रहनुमा बनना होगा।तभी पूरी दुनिया में मनाये
जा रहे फ़ादर्स डे या पितृ दिवस की सार्थकता होगी।
विलियम
वरड्सवर्थ ने लिखा है
कि-पिता एक ऐसा संबोधन है कि भगवान को भी हम इससे ज़्यादा पवित्र नाम से नहीं
बुला सकते।यानि कि पिता का दर्जा भगवान के बराबर ही माना है वर्डस्वर्थ ने। तो
इस दर्जे को,इस महानता को,इस ऊँचाई को बनाये रखने के लिये हमारे समाज में हर पिता
को कम से कम इन बातों पर ज़रूर अमल करना चाहिये-
- बेटा बेटी दोनों
बराबर: सबसे पहले अपने परिवार में बेटे और बेटी को एक समान अधिकार और दर्जा
दें।ऐसा करके आप स्वयं तो दोनों की आंखों का तारा बनेंगे ही,सामाजिक बदलाव की
दिशा में भी पहल करेंगे।
- बच्चों के दोस्त
बनें शासक नहीं: बच्चों के मन तक पहुंचने के लिये आप उनसे दोस्ताना
व्यवहार करें न कि उनके प्रति हमेशा अनुशासनात्मक रवैया अपनाएं। यदि कहीं वे
गलती कर भी दें तो पहले उन्हें प्यार से समझाएं फ़िर दण्ड के बारे में
सोचें।ऐसा करके आप उनका सम्मान तो करेंगे ही उनका विश्वास भी जीतेंगे और
बच्चे खुलकर अपने दु:ख सुख आपके साथ बांट सकेंगे।
- बच्चों से बराबर
बातचीत करें: बच्चों के साथ बहुत गंभीरता पूर्ण वातावरण में
न रहें।उनसे हमेशा बातचीत करते रहें क्योंकि आपका मौन उन्हें भी चुप रहने पर मजबूर
करेगा।और वे अपने मन की बातें आपके सामने कहने में डरेंगे।जबकि उनसे लगातार
बातचीत करते रहने पर वे अपनी गंभीर से गंभीर समस्याएं(यहां तक कि गलतियां भी)
आपसे खुलकर निःसंकोच साझा कर सकेंगे।
- घरेलू काम काज में
हाथ बटाएं: आपको घरेलू काम काज में माँ की मदद करते देख कर बच्चों
को बहुत खुशी होगी।उन्हें यह महसूस होगा कि आप बच्चों के साथ ही उनकी माँ को
भी उतना ही स्नेह और सम्मान देते हैं जितना कि उन बच्चों को।और इससे वे संवेदनात्मक
और भावनात्मक रूप से आपसे और भी जुड़
जाएंगे।
- बच्चों से कभी कभी
अपनी समस्या साझा करें: बच्चों से कभी कभी अपनी कोई छोटी
मोटी समस्याएं भी साझा करें(गंभीर नहीं)।इससे उन्हें लगेगा कि आप उन बच्चों
की बातों को भी महत्व देते हैं और वे गौरवान्वित महसूस करेंगे।साथ ही आप भी
अपनी समस्याओं के बोझ को कुछ कम महसूस करेंगे।
- कुछ निर्णय बच्चों
को करने दें: घर के कुछ निर्णय (मसलन दीवारों के रंग, गमलों के पौधे)
बच्चों के ऊपर भी छोड़ दें।इससे उनकी निर्णय क्षमता के साथ की आत्मविश्वास भी
बढ़ेगा।
- बच्चों के साथ
खेलिए: अपने बच्चों के साथ कभी कभी उनकी रूचि के खेल भी
खेलिए।देखिये आपको अपना बचपन तो याद आयेगा ही,आपके बच्चों को कितनी अधिक खुशी
मिलेगी।
- बच्चों के साथ
सुबह/शाम चाय पीजिए: आपकी यह आदत या नियम बच्चों को एक
अवसर देगा खुलकर अपने मन की बातें कहने का,आपसे सलाह मशवरा लेने का।बच्चे
पूरे परिवार के साथ बैठ कर चाय नाश्ता करने में खुशी महसूस करेंगे।
- बच्चों के साथ रसोई
संभालिए: कभी कभी आप अपनी पत्नी को रसोई से हटाकर बच्चों के
साथ खाना बनाइए।देखिये इससे आप की पत्नी,बच्चे सभी कितने खुश होंगे।उन्हें
लगेगा कि आप माँ को उतना ही सम्मान देते हैं जितना अपने बच्चों को।
ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनपर ध्यान देकर,इन्हें अपना कर आप
हिन्दी के मशहूर कवि भास्कर चौधरी की इन पंक्तियों को साकार कर सकते हैं-
मुझे
लगता है
पिता पर
लिखी जा सकती
है
लम्बी कविता
रामायण महाभारत
से लम्बी
पृथ्वी की
परिधि से भी
आसमान से ऊँची…
और तभी उस
फ़ादर्स डे का भी मनाया जाना सार्थक हो सकेगा जिसकी शुरूआत 1910 में सोनोरा स्मार्ट
डोड ने की थी।
000
डा0हेमन्त कुमार
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ब्लॉग बुलेटिन के पितृ दिवस विशेषांक, क्यों न रोज़ हो पितृ दिवस - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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