तीसरी ताली यानि समाज में उपस्थित रह कर भी अनुपस्थिति का दंश झेलने को मजबूर किन्नरों की गाथा-----।
गुरुवार, 24 मार्च 2011
लेखक:प्रदीप सौरभ
प्रकाशक:वाणी प्रकाशन
4695,21-ए,दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
लेकिन हमारे समाज में मानव प्रजाति के इन दो लिंगों के अलावा भी एक और प्रजाति का अस्तित्व है।जो न पुरुष होता है न स्त्री।न तो नर है न नारी।जो न संभोग कर सकता है न ही गर्भ धारण कर सकता है। जिसे हमारा समाज किन्नर, हिंजड़ा या छक्का कहता है। जिसे आदिकाल से ही हमारे मानव समाज ने उपहास का पात्र या मनोरंजन का साधन बना रखा है। जिसे इस समाज से हमेशा उपेक्षा मिली है। बावजूद इस उपेक्षा,उपहास के इस तीसरी योनि का अस्तित्व हमारे समाज में है और हमेशा रहेगा।
इन्हीं किन्नरों और हिजड़ों के जीवन की एक एक परतों को खोला है प्रदीप सौरभ ने अपने नये उपन्यास ‘तीसरी ताली’ में।हमारे आपके लिये इस तीसरी योनि के लोग सिर्फ़ कुछ शुभ अवसरों पर तालियां बजा कर नाचने,बधाई देने और रूपये ऐंठने के लिये आते हैं।लेकिन इसके अलावा भी इनका अपना समाज है,अपनी संस्कृति,रीति- रिवाज हैं। जिसके बारे में न हम कभी सोचते हैं न ही जानने की कोशिश करते हैं। हमने शायद कभी यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि ये लोग कैसे रहते हैं। इनके रीति- रिवाज, संस्कृति क्या है? इनके अंदर क्या भावनायें हैं?ये मानव समाज की सारी उपेक्षा,उपहास और संत्रास का दंश झेलते हुये भी अपने अंदर क्या महसूस करते हैं? हमने कभी यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि इनके अंदर धड़कने वाले दिल में क्या हलचल होती है? इनके मन की गहराइयों में क्या भावनायें हिलोरें लेती रहती हैं? इन सभी प्रश्नों का जवाब हमें मिलता है ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में।
‘तीसरी ताली’ उपन्यास के कथानक की शुरुआत दिल्ली की सिद्धार्थ इन्क्लेव हाउसिंग सोसायटी से होकर हिजड़ों के पवित्र तीर्थ स्थल कुवागम के मेले में जाकर पूर्णता को पहुंचती है। सिद्धार्थ इन्क्लेव से कुवागम मेले के बीच का यह सफ़र हमें मानव समाज के उस रूप का दर्शन करवाता है जिसके बारे में प्रायः हम आप बात करना तो दूर सोचना,विचारना तक पसंद नहीं करते। जिनके बारे में हमारी तथाकथित सभ्य सोसायटी में बात करना वर्जित है। जिन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। इस कथानक में हिजड़ो के जीवन के साथ ही एक और भी समान्तर दुनिया चलती है।“यह उभयलिंगी सामाजिक दुनिया के बीच बरक्स हिजड़ों,लौंडों,लौंडेबाजों,लेस्बियन्स और विकृत-प्रकृति की ऐसी दुनिया है जो हर शहर में मौजूद है। और समाज के हाशिये पर जिंदगी जीती रहती है।अलीगढ़ से लेकर आरा,बलिया,छपरा,देवरिया यानी ‘एबीसीडी’ तक, दिल्ली से लेकर पूरे भारत में फ़ैली यह दुनिया समान्तर जीवन जीती है।------समकालीन ‘बहुसांस्कृतिक’दौर के ‘गे’,‘लेस्बियन्स’,’ट्रांसजेण्डर’,‘अप्राकृतिक–यौनात्मक जीवन शैलियों के सीमित सांस्कृतिक स्वीकार में भी यह दुनिया अप्रिय,अकाम्य,अवांछित और वर्जित दुनिया है।”—सुधीश पचौरी(उपन्यास के फ़्लैप से)।
हिजड़ो के बारे में फ़्रांस के प्रसिद्ध उपन्यासकार,लेखक डोमनीक लापिएर ने अपनी बहुचर्चित कृति ‘द सिटी आफ़ ज्वाय’(आनन्द नगर) में काफ़ी विस्तार से लिखा है।लेकिन हिजड़ो की दुनिया में उतनी गहराई तक वे नहीं पहुंचे हैं जितना प्रदीप सौरभ। यद्यपि सिटी आफ़ ज्वाय लापिएर के लम्बे शोध और अध्ययन के बाद लिखी गयी रचना है।लेकिन उनका मुख्य विषय कोलकाता शहर,वहां के रिक्शाचालक, बिहार से आये हुये मजदूर थे न कि हिजड़े।जब कि ‘तीसरी ताली’ उपन्यास का मुख्य विषय और केन्द्र बिन्दु हिजड़े ही हैं।
यहां डोमनीक लापियेर की कृति का जिक्र मैं इस लिये कर रहा हूं कि लापियेर और प्रदीप सौरभ की कार्य शैली में एक बहुत बड़ी समानता है। वह यह कि दोनों ही अपनी कृति के विषय पर बहुत गहन शोध करने के बाद उस पर कलम चलाते हैं। जितना शोध हमें लापिएर की कृतियों में दिखायी देता है उतना या उससे कहीं अधिक कार्य प्रदीप सौरभ ने भी अपनी कृतियों के लिये किया है।चाहे इनका पहला उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल’ हो या ‘तीसरी ताली’। वैसे भी एक कुशल और सफ़ल पत्रकार होने के नाते प्रदीप की खोजी प्रवृत्ति की झलक हमें इस उपन्यास के हर पृष्ठ और हर वाक्य में दिखायी पड़ती है।
‘तीसरी ताली’के मुख्य पात्र हैं डिम्पल(हिजड़ोके गद्दी की मालकिन),गौतम साहब,आनन्दी आण्टी,रेखाचितकबरी,(कालगर्ल रैकेटियर),रानी उर्फ़ राजा,बाबू श्याम सुन्दर सिंह,सुविमल भाई(गांधीवादी नेता),अनिल,सुनीता,विनीत उर्फ़ विनीता और फ़ोटोग्रैफ़र विजय। पूरा उपन्यास इन्हीं पात्रों के साथ आगे बढ़ता है।एक कथानक हिजड़ो के जीवन को आगे लेकर बढ़ रहा है तो दूसरी ओर समान्तर ही लौण्डेबाजों,लेस्बियन्स, और कालगर्ल्स के धन्धे की कहानियां भी इससे जुड़ी हैं।
अगर हम उपन्यास की मूलकथा की बात करें तो हिजड़ो की मण्डली की सरगना डिम्पल के चरित्र को साथ लेकर चलना पड़ेगा।इस कथानक में लेखक ने हिजड़ो के डेरे,उनकी गद्दी,डेरे के अन्दर की समस्त गतिविधियों को बखूबी रेखांकित किया है। हिजड़े अपने हर शुभ कार्य,शुभ अवसर पर मुर्गेवाली या खप्परवाली दो देवियों की पूजा करते हैं।हिजड़ो की गुरू सन्त आशामाई हैं।जिनका आश्रम या पीठ मेहरौली की पहाड़ियों के बीच स्थापित है।हिजड़े अपने सारे क्रियाकलाप इन्हीं सन्त आशामाई के ही उपदेशों के अनुसार करते हैं। इनके अन्दर भी सामान्य मानव की ही तरह अपने गुरु और अपनी देवियों के प्रति अपार श्रद्धा है।ये भी अपनी देवियों के प्रकोप से डरते हैं। इनके भी अपने उसूल होते हैं।ये कभी भी किसी से गलत ढंग से पैसा नहीं ऐंठना चाहते।क्योंकि इनकी गुरु सन्त आशामाई ने जीविका के ऐसे तरीकों को गलत बताया है।
डिम्पल के डेरे पर ही अलीगढ़ के नाचने वाले राजा को रानी में तब्दील करने की कथा उपन्यास को रोचक बनाने के साथ ही हमें बहुत कुछ विचारने पर भी मजबूर करती है।ड़िम्पल ने जिस मंजू को अपनी बेटी की तरह पाला उसी के साथ शारीरिक संबंध बनाने की सजा राजा को अपना पुरुषांग कटवाकर भुगतनी पड़ती है। पढ़ने में तो यह कथानक दिल दहला देने वाला है लेकिन साथ ही हमारे अपने समाज के सम्मुख एक प्रश्न भी खड़ा करता है।
वह यह कि एक तरफ़ तो हिजड़ो का समाज है जहां मंजू की एक छोटी सी नादानी या भूल की सजा राजा को अपना लिंग कटवाकर भुगतनी पड़ती है----वहीं दूसरी ओर हम अपने समाज में उन बलात्कारियों को क्या सजा देते हैं जो किसी युवती या मासूम लड़की को जबरदस्ती अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं।-----सिर्फ़ कुछ दिनों की जेल या जुर्माना ----और उसके बाद वह बलात्कारी फ़िर आजाद---?क्या हिजड़ो का वह गुप्त समाज हमारे आपके समाज से उसूलों के मामले में बेहतर नहीं---?जिन्हें कम से कम अपनी बिरादरी,समाज और गुरु का भय तो है।इतना ही नहीं उपन्यास के अंत तक डिम्पल बार बार जिस तरह से राजा मंजू प्रकरण को लेकर पश्चाताप करती दिखायी देती है,यह उसके अंदर छिपी मानवीय संवेदनाओं, भावनाओं,मां की ममता और हिजडे होने के दर्द का प्रतीक है।
उपन्यास का हिजड़ो वाला कथानक एक ओर हमें उनके बीच गद्दियों,इलाकों को लेकर होने वाले खूनी घमासान से रूबरू कराता है।तो दूसरी तरफ़ उनकी परंपराओं---किसी को हिजड़ा बनाने,चुनरी की रसम करने,मंडली और गुरू की परंपरा का निर्वाह,हिजड़ियों के अंदर की स्त्रीत्व की भावना,उनमें गिरिया रखने (वह भी मूंछों वाले) के रिवाज,जैसी कितनी ही परंपराओं से हमें परिचित कराता है। शायद हममें से ज्यादातर को यह मालूम भी नहीं होगा कि कुवागम कौन सी जगह है?तमिलनाडु के विल्लूपुरम जिले का छोटा सा गांव है कुवागम। यह हिजड़ो का पवित्र तीर्थ स्थल है।यहां हर साल एक मेला लगता है। जिसमें दुनिया भर के हिजड़े आते हैं। ये सभी हिजड़े कुठनवार मंदिर जाकर एक दिन के लिये सुहागन फ़िर विधवा बन जाते हैं।“पूरे कुवागम में सत्रह दिनों तक उत्सव का माहौल रहता है। देश विदेश के कोने कोने से हिजड़े यहां आते हैं।”कुवागम के इस मेले के पीछे की महाभारत की कथा भी उपन्यास को रोचक और पठनीय बनाती है। साथ ही हमें इस तीसरी योनि के लोगों की संस्कृति और परंपरा के एक अन्य रूप का दर्शन भी कराती है।
तीसरी ताली में तीसरी योनि धारी लोगों के कथानक के समान्तर ही हमें अपने समाज के उस रूप का परिचय मिलता है जो हमारे अंदर वितृष्णा,क्षोभ और जुगुप्सा पैदा करता है। लेकिन फ़िर भी वह सब हमारे समाज की एक नंगी सच्चाई है जिसके बारे में हमें दिमागी मंथन करने की भी जरूरत है।कथानक के इस हिस्से में हमें दिखायी देती है कालगर्ल्स रैकेट,लौण्डेबाजों,लेस्बियनों और गे लोगों की दुनिया।बाबू श्याम सुन्दर सिंह,सुविमल भाई,अनिल जैसे खद्दरधारी और सफ़ेदपोशों की यह वो दुनिया है जहां देश की सत्ता में आने और कुर्सी पर काबिज होने के लिये साम दाम दण्ड भेद सभी कुछ अपनाया जाता है।लेकिन इनका व्यक्तिगत जीवन कितना कलंकित और घिनौना है यह बात हम तीसरी ताली पढ़ कर भली भांति समझ सकते हैं।
बाबू श्यामसुन्दर सिंह को तवायफ़ों के साथ ही लौण्डों का भी शौक था। ज्योति उनका सबसे प्रिय लौण्डा था जिसे बाबू साहब अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे।बाबू साहब का प्रकरण हमें पूर्वी उत्तरप्रदेश,बिहार के एबीसीडी यानी आरा,बलिया,छपरा,देवरिया के सफ़ेदपोशों के घृणित और कुत्सित शौकों से परिचित कराता है। इसी सन्दर्भ में इन सफ़ेदपोशों का शिकार बनने वाले लौण्डों(खूबसूरत किशोरों,युवकों) का दर्द हमें ज्योति के इन शब्दों में साफ़ साफ़ दिखायी देता है---“माना मैं मर्द हूं,लेकिन ये समाज मुझसे मर्द का काम लेने के लिये राजी नहीं है। मुझे इस समाज ने मादा की तरह भोग की चीज में तब्दील कर दिया है। मैं मर्द रहूं या फ़िर हिजड़ा बन जाऊं इससे किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। पेट की आग तो बड़ों बड़ों को न जाने क्या से क्या बना देती है।”(तीसरी ताली—पृष्ठ-57)
यही पेट की आग ही तो है जो हिजड़ो को नाचने गाने के साथ समाज की उपेक्षा और उपहास के दंश से बचने के लिये,कालगर्ल्स रैकेट में घुसने की कोशिश और रैइसजादों के लौण्डेबाजी के शौक को पूरा करने के लिये मजबूर करती है।एक मुकम्मल पुरुष ज्योति को हिजड़ा बनाने की रसम और प्रक्रिया हमारे अन्दर वितृष्णा तो भरती है लेकिन साथ ही एक प्रश्न भी हमारे आत्ममंथन के लिये छोड़ देती है कि आखिर इस तीसरी योनि का अस्तित्व हमारे समाज में क्या है?
इसी लौण्डेबाजी के शौकीन सुविमल भाई। थे तो गांधीवादी लेकिन व्यक्तिगत तौर पर इन्हें औरतों की गंध से नफ़रत थी।इन्होंने विवाह तो रति से किया लेकिन सिर्फ़ एक सुरक्षा कवच के लिये। अपने घर का काम काज,चूल्हा चौका करने के लिये।अपनी शारीरिक भूख तो वे पार्टी के एक युवक अनिल के साथ अप्राकृतिक सम्बन्ध बनाकर पूरा करते हैं। इतना ही नहीं वे अपनी पत्नी रति को भी लेस्बियन बनने की सलाह देते हैं। जो कि बाद में इनसे तलाक लेकर अपना घर बसा लेती है।
इस गे वर्ल्ड और लेस्बियन्स,होमो की दुनिया को भी लेखक ने उतनी ही कुशलता के साथ रेखांकित किया है जितना हिजड़ो की दुनिया को।इसे पढ़ने के साथ ही हमारी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। इन सभी के प्रति हमारे मन में जुगुप्सा के साथ ही इनकी स्थितियों पर तरस भी आता है कि क्या कभी ये असामान्य लोग सामान्य जीवन नहीं बिता सकेंगे?
इसी उपन्यास के एक और पात्र का मैं खास तौर से जिक्र करना चाहूंगा जिसके बिना इस उपन्यास पर बात करना अधूरा रह जायेगा।यह पात्र या चरित्र है गौतम का बेटा विनीत उरफ़ विनीता।विनीत को गौतम साहब लड़का बना कर रखना चाहते हैं।जबकि वह थी लड़की।शायद उसके पीछे गौतम साहब का अपना दर्द छुपा था बेटा न होने का।विनीत के विनीता बनने की कहानी से हमारे सामने समाज के कई रहस्य उद्घाटित होते चले जाते हैं।सेक्स रैकेट में कैसे हिजड़ो,हिजड़ियो का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। पुलिस किसी व्यक्ति को किस ढंग से यूज करना चाहती है। इंस्पेक्टर शर्मा विनीता को रेखा चितकबरी को सौंप कर कुछ रकम कमाने के मूड में थे।लेकिन वह कांस्टेबिल राज चौधरी की सहायता से किस तरह ब्यूटीपार्लर तक पहुंचती है और धीरे धीरे खुद अपना पार्लर ‘गे वर्ल्ड’ खोलकर जल्द ही चैनलों की सुर्खियों से लेकर अखबारों के थर्ड पेज तक छा जाती है।विनीता की यह कहानी भी बहुत रोचक बन पड़ी है।
इस तरह कहानी दर कहानी कहता हुआ यह उपन्यास हमारे ऊपर अपने सम्पूर्ण रूप में इस तरह का प्रभाव डालता है जिसमें हर कहानी या कथानक अपने आप में एक मुकम्मल कहानी भी है और साथ ही उपन्यास का एक हिस्सा भी।
मैं पहले भी कह चुका हूं कि प्रदीप पहले एक कवि,पत्रकार और कुशल फ़ोटोग्रैफ़र हैं।उपन्यासकार बाद में।उनके इन्हीं तीनों रूपों ने मिलकर उनके इस उपन्यास में जो गठन और कसाव पैदा किया है वह पाठक को हिलने नहीं देता,और अन्त तक बांधे रहता है। तीसरी ताली के शिल्प और गठन के साथ ही अच्छे शोध के कारण विषय वस्तु में आयी जीवन्तता भी पाठक को आकर्षित करती है।
आखिरी बात—उपन्यास के अंत में पत्रकार विजय द्वारा कहा गया यह संवाद—“दुनिया के दंश से अपने आपको बचाने के लिये मैंने लगातार लड़ाई लड़ी। और खुद को स्थापित किया। मैं नाचना गाना नहीं,नाम कमाना चाहता था। भगवान राम के उस मिथक को झुठलाना चाहता था,जिसके कारण तीसरी योनि के लोग नाचने गाने के लिये अभिशप्त हैं और परिवार समाज से बेदखल हैं।”
यह संवाद हमारे पूरे समाज के सामने एक प्रश्नचिह्न है।लेखक ने इसके माध्यम से मानव समाज में इस तीसरी योनि के अस्तित्व के बारे में जानना चाहा है कि यह समाज अब खुद बताये कि आखिर इस धरती पर इनका क्या वजूद है?इनके क्या हक हैं?इनको क्या दर्जा दिया जाना चाहिये----नर का ?नारी का?या किसी तीसरी योनि का?
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प्रदीप सौरभ: पेशे से पत्रकार।हिन्दुस्तान दैनिक के दिल्ली संस्करण में विशेष संवाददाता।हिन्दी के चर्चित कवि,पत्रकार और लेखक। मुन्नी मोबाइल, तीसरी ताली उपन्यास काफ़ी चर्चित। कानपुर में जन्म। परन्तु साहित्यिक यात्रा की शुरुआत इलाहाबाद से। कलम के साथ ही कैमरे की नजर से भी देश दुनिया को अक्सर देखते हैं।पिछले तीस सालों में कलम और कैमरे की यही जुगलबन्दी उन्हें खास बनाती है।गुजरात दंगों की बेबाक रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत। लेखन के साथ ही कई धारावाहिकों के मीडिया सलाहकार।
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।
6 टिप्पणियाँ:
namaskaar sir,
'tisari tali'pustak samiksha bahut hi shandaar hai. samaj ke is varg ke prati aaj se lagbhag 3 saal pehele se hi mere dil main kuch khas jagah hai. karan hai mere patrkarita ki study ke dauran kiya gaya ek project. apne blog par maine is vishay par thoda bahut likha hai.
krati-fourthpillar.blogspot.com
is blog main ' jine do ' naam ka post dekhen aur apane vichar den.pradip sir jitana khoobsoorat to nahi likh payi, par ek koshish zaroor ki hai. ek baar awashya dekhen.
namaskaar.
समीक्षा अत्यंत प्रासंगिक है। समाज के तीसरे वर्ग को चिन्तन का विषय बनाना साहस का कार्य है। हेमन्त जी बथाई के पात्र हैं।
सामयिक व संवेदनशील लेख।
आपकी रचना हम किन्नरों के लिए एक श्रेष्ठ कृतित्व है,मैं इसके लिए आपको साधुवाद देना चाहती हूँ
Kripaya is link ko bhi avashya padhen...
http://krati-fourthpillar.blogspot.in/2011/02/blog-post_24.html
Aap apna mb de degeye aap se baat karna hai
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