कहाँ खो गया बचपन
रविवार, 19 दिसंबर 2010
पिछ्ले कुछ सालों से।
मैं ढूंढ़ता रहता हूं बचपन को
मुहल्ले की सड़कों पर
पार्कों में, गलियों में, चबूतरों पर
पर कम्बख्त बचपन
मुझे कहीं मिलता ही नहीं।
नहीं दिखाई देती अब कोई भी लड़की
मुहल्ले की सड़कों पर
चिबड्डक खेलते हुये
रस्सी कूदते हुये या फ़िर
घरों के आंगन बराम्दों में
गुड़िया का ब्याह रचाते।
न पार्क में कोई लड़का
गिल्ली डण्डा, सीसो पाती या
फ़िर कबड्डी, खोखो खेलते हुये।
कहीं ऐसा तो नहीं
हमारे देश के सारे बच्चे
उलझ गये हों
कार्टून नेटवर्क,पोगो और टैलेण्ट हण्ट के
मायाजाल में।
सिमट गया हो बचपन
सिर्फ़ वीडियो गेम और
कम्प्यूटर की स्क्रीन तक
या लद गया हो बचपन की पीठ पर
पसेरी भर का बोझा ज्ञान विज्ञान का
बस्ते के रूप में।
मुझे चिन्ता सिर्फ़ इस बात की नहीं
कि मुहल्ले की गलियों पार्कों में
पसरा सन्नाटा कैसे टूटेगा
कैसे दिखाई देंगे बच्चे यहां
चिन्ता तो इस बात की है
कि बच्चों की कल्पना का क्या होगा?
जो न सुनते हैं कहानियां किस्से
अब नानी दादी से
न उन्हें मालूम है कि क्या है
गुड्डे गुड़िया का खेल
न जाते हैं अब वे नागपंचमी,
दशहरे के मेलों में
न करते हैं भागदौड़,धमाचौकड़ी
गलियों और पार्कों में।
तो कल कहां से करेंगे ये बच्चे
नई नई विज्ञान की खोजें
नये नये आविष्कार
कैसे बनेंगे ये बच्चे
देश के भावी कर्णधार
कहां से आएगा इनके अंदर
गांधी नेहरू या आजाद का संस्कार।
000000
हेमन्त कुमार
9 टिप्पणियाँ:
मैं ढूंढ़ता रहता हूं बचपन को
मुहल्ले की सड़कों पर
पार्कों में, गलियों में, चबूतरों पर
पर कम्बख्त बचपन
मुझे कहीं मिलता ही नहीं।
नहीं दिखाई देती अब कोई भी लड़की
मुहल्ले की सड़कों पर
चिबड्डक खेलते हुये
रस्सी कूदते हुये या फ़िर
घरों के आंगन बराम्दों में
गुड़िया का ब्याह रचाते।
mushkil hai aajkal ise dekhna , aangan kahan ...masumiyat kahan
ना खोज पायोगे बचपन को गलियों में गलियारों में,
ढूंढने से भी ना मि्लेगा वो खिज़ाओं में या बहारों में!!
अपने दिल से हटा दो हर तरह की दूरीयां,
मासूमियत को बिछा दो सिर से लेकर पैरों तक!
...कोई नफ़रत भी करे तो उसको प्यार दो,
अपनत्व फैला दो अपनों से लेकर गैरों तक!
बचपन बस प्यार लेने के लिये ही नहीं,
प्यार देने के लिये भी है,
मुलायम जिस्म ही नहीं मन भी हो,
सहने औ' बढने के लिये भी है!
ना वो मिलेगा किसी कश्ती को बारिश में बहाने से,
ना वो पाओगे नाचते हुए टपकती बूंदों मे नहाने से!
फैला दो प्यार को अपने चारों तरफ हर ओर,
बचपन मिलेगा बस दिल को बच्चों सा बनाने से!!
बस बच्चों सा बनाने से....!!
जिसको तलाश है बचपन की, वो बच्चा बन जाये...
और ..... क्या लिखूं मैं...
क्यों अपने को बडा मेहसूस करूं...!!!
बचपन की चाह हमें भी है, बस एक बार आकर घूम जाये।
बहुत बड़ा सच सबके सामने रखा है इस कविता ने. 'नर्सरी,के.जी.के बच्चो से ज्यादा उनके पेरेंट्स को उनके टेस्ट की चिंता में घुलते और बच्चों को जबरन रटाते देखती हूँ तो तकलीफ होती है.कम्पीटिशन के इस युग ने बच्चों का बचपन उनसे छीन लिया है.जबकि दोनों में संतुलन बना कर भी बच्चो को पढाया जा सकता है.मेरे स्कूल में घर के लिए बच्चो को कोई 'टेंशन' नही दिया जाता.वे बचपन इंजॉय करे.हाँ इसके बदले में टीचर्स को मेहनत ज्यादा करनी पडती है.
पर...........खेल खेल में बच्चे सब सीख जाते हैं जाने कब हमारी शिक्षा व्यवस्था सुधरेगी. और पेरेंट्स भी.संपादित करें8:45 am
बहुत शशक्त रचना है ...सोचने को मजबूर करती है आपकी बात ..
हम तो ऐसा ही बचपन रोज देखते हैं ....और कभी कभी तो दो चार मिनट का मौक़ा पा कर ऐसा ही बचपन जी लेते हैं |
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आज ही गुल्ली डंडा पर हाथ आजमाया .......बहुत मजा आया !
सच में !
बचपन के दिन भी क्या दिन थे!
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती एक अच्छी कविता .
"Merry Christmas-मेरी क्रिसमस "
--
HAPPY CHRISTMAS.
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सभी को क्रिसमस की शुभकामनाएँ!
--
आपकी पोस्ट बाल चर्चा मंच परचर्चा में है!
http://mayankkhatima.uchcharan.com/2010/12/merry-christmas-32.html
बहुत ही गहराई तक असर करनेवाली रचना.काफी कुछ मन में घुमड़ने लगा इसे पढ़ कर.
मेरे शिष्य ओम जी द्वारा ब्लॉग पर निर्मित रेडिओ documentry में आपकी प्रस्तुति बहुत अच्छी रही.बधाइयां.
मेरे शिष्य ओम जी द्वारा ब्लॉग पर निर्मित रेडिओ documentry में आपकी प्रस्तुति बहुत अच्छी रही.बधाइयां.
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