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महुअरिया की गंध(भाग-2)

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009



(अभी तक आपने पढ़ा---- मानिक क्षण भर उनकी आंखों में झांक कर बोला—‘आप का कह रहे हैं मालिक ?घर में एक भी जन रहता है तब भी तुलसी के बिरवा तर संझौती की दिया बाती होती है। मंदिर का कपाट नाहीं खुला होता
तब भी लोगों का हाथ जुड़ता है ।सच है कि नाहीं ? उठिये, यह संझौती की बेला है।----और अब आगे पढ़िये-----)

मानिक के इन शब्दों से कमलेश्वर का मन जैसे सुवासित हो उठा। कहीं यह सुवास उनके गौरा की माटी की तो नहीं थी। मानिक की आंखों में संझौती के दिये का शीतल प्रकाश तैर रहा था। एक नवशक्ति से भर वे उठ कर खड़े हो गये।
वे अमला से बोले –‘भूपेश जाय तो हम सब गौरा चलेंगे। अपने गांव गौरा। भले ही रात भर को। अमला का मुंह एक सुखद आश्चर्य से खुला रह गया।वह मुस्करायी। पर शायद उसकी मुस्कराहट को नहीं पता था, कमलेश्वर अपने इन शब्दों पर कितने अडिग हैं। भूपेश और प्राची का गौरा के निचाट उजाड़ भूखण्ड पर मिला बहता हुआ हंसी का झरना पूनो। मानिक की बेटी। आग बरसाते सूरज,बंसवारी को मथती गरम हवा की लपटों से बेखबर उसकी हंसी गूंजती रहती।
भूपेश ने पूनो को बताया—‘पापा ने यहां आने के लिये अनशन कर दिया था। इसीलिये सबको आना पड़ा। पर उन्हें यहां छोड़ना---ना बाबा ना। यहां तो आग के बगूले उठ रहे हैं। नदी सूख गयी है। कुयें तालाब में पानी नहीं है। कैसे जीते हैं यहां के लोग ?
पूनो उसका हाथ पकड़कर उसे खींचती हुयी ले गयी।एक चट्टान से बूंद बूंद कर पानी टपक रहा था। बर्फ़ सा ठंडा। भूपेश अवाक सा उसे सुनता रहा---‘ बाबू पाथर की छाती में से पानी रिस रहा है।ऊपर से धरती सूख गयी है। लेकिन नीचे पोर पोर में रस भरा हुआ है। ऊपर से चिनगारी बरसत है। नीचे से लपट उठत है। लेकिन
देखो,सिवाने पर लगी महुअरिया। बतायेगी,इहां का मानुस कैसे जीता है। साल में एक बार दिन आता है जब महुआ के पोर - पोर में रस छलक उठता है। टप-टप टपके लगता है सफ़ेद मोती। पलाश का रंग पाय के महुआ की गंध उड़ती है तो इहां का पत्ता पत्ता रसिया हो जाता है बाबू। भूल जाता है आपन दुख दरिद्दर।और फ़िर वह हंसी का फ़ुटहरा। जैसे वहां अब भूपेश नहीं था,पूनो नहीं थी,गौरा का वह भूखण्ड नहीं था। हजार हजार विषम गांठों को खोलती चली गई पूनो की वह उन्मुक्त हंसी।

आज सबको वापस लौटना था। लेकिन पूनो के आग्रह पर एक रात के लिये वे और रुक गये। पूनो ने कहा-‘बाबू आज पहिला महुआ टपका है न। सो महुअरिया में इहां का मानुस थोड़ा नाचेगा ,गायेगा। करिया का मिरदंग जरूर सुनियेगा। दस गांव जवार में ऐसा नामी गिरामी मिरदंगिया नहीं है। असली विजयसार का मिरदंग है। बोल करिया---और करिया फ़ड़क उठा—‘हां बाबू , धुम किटतक ----धुम किटतक -----ऐसे बजेगा कि-------

यह हंसी, उल्लास। भूपेश चकित था। उनके जाने के बाद प्राची बोली---‘पीड़ा के भीतर से ही ऐसी हंसी और उल्लास भी उपजते हैं। तुमने तो देखाधरती तपती है तो पलाश खिलता है। अग्निबाण चलते हैं तो महुआ के पोर पोर से रस टपकने लगता है। इस करिया ने एक दुर्घटना में अपना पूर परिवार खो दिया। पूनो का पति परदेस गया तो वहीं का होकर रह गया। पर इसकी प्रतीक्षा तो रोजाना तुलसी के नीचे एक दिया जलाकर और भी प्राणवती हो उठती है। जीने का विश्वास मिल जाता है। क्या हम इसे नहीं पा सकते भूपेश ?’
तभी एक कोमल पाश ने जकड़ लिया प्राची को—‘लो जिज्जी, पहनो घुंघरू।
अरे यह क्या है?’प्राची अचकचा कर बोली।
पूनो मचल कर बोली---‘अब महुअरिया में चल कर ही बतायेंगे। और हां बाबू, चलो।तुम्हें ही तो साथ देना है।मिरदंग पर ऐसे थिरकेंगे पांव।
प्राची की आंखों में आंसू छलछला आये। पूनो ने अपने आंचल से उसे पोंछते हुये कहा—‘अरे , का ?आज पहिला महुआ टपका है। आज अंखियन में आंसू आये तो देवता रिसिया जायेंगे। फ़िर अगले साल महुआ नहीं टपकेगा जिज्जी।
प्राची भरे गले से बोली---‘चलो पूनो,महुआ हर साल टपके। इसलिये हम तुम लोगों के साथ हंसेंगे, नाचेंगे। आओ भूपेश।
पूनो वहीं से चिल्लाती हुई महुअरिया की ओर दौड़ी---‘अरे मिरदंगिया,जरा जोर से बजाओ। पाहुन आय रहे हैं।
टटकी गंध से सराबोर महुअरिया में करिया का मिरदंग गमक रहा है। घुंघरू बंधे अनेक पांव एक लयताल पर उठते हुये करिया के मिरदंग से होड़ ले रहे हैं।
सहसा कमलेश्वर अमला की आंखों में झांकते हैं। संझौती के दीये का शीतल प्रकाश तैर रहा है उन आंखों में। वे आपादमस्तक नहा उठते हैं उसमें। कानों में करिया का मिरदंग रस घोल रहा है। सांसों में महुअरिया की गंध घुल रही है।
( समाप्त )

लेखक:श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
( इस कहानी के लेखक मेरे पिता जी श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी हिन्दी साहित्य के लिये नये नहीं हैं। आप पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन में संलग्न हैं। आपने कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की रचना की है। आपकी कहनियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ वृत्त चित्रों का लेखन कार्य भी किया है। 1950 के आस पास शुरू हुआ आपका लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 80 वर्ष की उम्र में भी जारी है।)
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित

4 टिप्पणियाँ:

रश्मि प्रभा... 13 अक्तूबर 2009 को 1:22 am बजे  

वाकई...साँसों में महुरिया की गंध घुल रही है

दिगम्बर नासवा 17 अक्तूबर 2009 को 12:19 am बजे  

हेमंत जी .....
आपको और आपके परिवार में सभी को दीपावली की शुभकामनाएं .........

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