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काल चक्र

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

काल चक्र का घुन
कुतर रहा है धीरे धीरे
मेरे जिस्म को।


इतनी धीमी गति से
की मैं
चीख न सकूं
चिल्ला न सकूं
फैला न सकूं अपने हाथ पाँव
न दे सकूं कोई बयान
अपने पक्ष में।

तुम देख सकते हो
जेल के सीखचों को एकटक ताकती
मेरी भावः शून्य आंखों के परदे पर
मेरे अतीत की तस्वीर।


की कैसे बेबस जनक के सामने ही
रौंदी गयी सीता
आताताइयों के क्रूर हाथों में
कैसे खेली गयी होली खून की
किया गया तांडव
जनक के सीने पर।

देख सकते हो की कैसे
बदल दिए जाते हैं बयान
नष्ट कर दिए जाते हैं सबूत
तोड़ मरोड़ दिए जाते हैं तथ्य
बंद कर दी जाती हैं जुबानें रातोंरात
संगीनों कीं नोक पर।

आओ तुम भी आओ
शामिल हो जाओ
घुनों की लम्बी कतार में
और कुतर डालो
छलनी कर डालो पूरी तरह
इस जिस्म को
इन भावः शून्य आंखों को
इस मस्तिष्क को
और नष्ट कर डालो मेरे होने के
हर सबूत को।


ताकि भविष्य में
कोई भी न देख सके
इस तस्वीर को
पढ़ न सके इस इतिहास को
मेरी पथराई आंखों के परदे पर
सुन न सके मेरी इस आवाज को
मेरी जुबान से।
----------
हेमंत कुमार

11 टिप्पणियाँ:

hem pandey 23 फ़रवरी 2009 को 8:35 am बजे  

सुंदर रचना, सुंदर रेखांकन. साधुवाद.

बेनामी,  23 फ़रवरी 2009 को 9:47 am बजे  

भावपूर्ण रचना के लिए साधुवाद।

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी 23 फ़रवरी 2009 को 6:27 pm बजे  

गहरी रचना| मगर इतना अवसाद क्यों? (आप ’की’ को ’कि’ लिख सकते हैं)

रश्मि प्रभा... 23 फ़रवरी 2009 को 11:19 pm बजे  

देख सकते हो कि कैसे
बदल दिए जाते हैं बयान
नष्ट कर दिए जाते हैं सबूत
तोड़ मरोड़ दिए जाते हैं तथ्य
बंद कर दी जाती हैं जुबानें रातोंरात
संगीनों कीं नोक पर।.......सत्य का खुला रूप,बहुत सही

दिगम्बर नासवा 24 फ़रवरी 2009 को 5:44 am बजे  

देख सकते हो की कैसे
बदल दिए जाते हैं बयान
नष्ट कर दिए जाते हैं सबूत
तोड़ मरोड़ दिए जाते हैं तथ्य
बंद कर दी जाती हैं जुबानें रातोंरात
संगीनों कीं नोक पर।


हेमंत जी
यथार्त जैसे बोल रहा है आपकी रचना मैं, समाज से विद्रोह करती शशक्त रचना.
आज के समाज का सही चिंतन

बधाई हो इस मकसद भरी रचना के लिए

BrijmohanShrivastava 24 फ़रवरी 2009 को 9:04 pm बजे  

व्यक्ति लाख चीखे ,चिल्लाये ,भागना चाहे किन्तु समय चक्र अपना प्रभाव बतलाकर ही रहता है /अपने पक्ष में दिए गए बयान न तो कोई सुन पायेगा न समझ पायेगा /हाँ हम समय चक्र को धोखा देने की कोशिश अवश्य करते है ,बाल रंगते है ,नाना प्रकार के उपाय करते है / जनक के सामने सीता वाली बात समझ से परे है चूंकि आपने लिखा है तो हो सकता है कोई ऐतिहासिक तथ्य आपने पढ़ा हो /संगीनों की नोक पर बदलने वाली बात वास्तविकता है यही हो रहा है और ऐसे में आप जैसे साहित्यकार का ध्यान जाना स्वाभाविक है /दुखी और क्रोधित ,कुछ कर सकने में असमर्थ या असक्षम दिल यही सोचता है कि मेरे अस्तित्व को मिटा दिया जाये और यही आपकी रचना का उद्देश्य है /सशक्त रचना /दिल को छू लेने वाली /

हरकीरत ' हीर' 24 फ़रवरी 2009 को 10:07 pm बजे  

इतनी धीमी गति से
की मैं
चीख न सकूं
चिल्ला न सकूं
फैला न सकूं अपने हाथ पाँव
न दे सकूं कोई बयान
अपने पक्ष में।

तुम देख सकते हो
जेल के सीखचों को एकटक ताकती
मेरी भावः शून्य आंखों के परदे पर
मेरे अतीत की तस्वीर.......

Waah...! Hemant ji mujhse kehte hain meri kavitaon me jivan k her rang dikhte hain...aapki kavitaon me kya hai...? kmal ka likha hai aapne ...dil me gahre tak sma gayi ise hi kavita kehte hain....'mai mar gya ya jinda ho gya' ye koi kavita hai bhla....mun khinn ho jata hai padhkr.....!!

बेनामी,  25 फ़रवरी 2009 को 10:34 am बजे  

aadarniya bhai sahab,
aaj maine aap dwara rachit kavitaain padhee. aapki kavitaain bahut hi bhavuk, marmsparshi avam dil ko chune wali hoti hain. bacchon ke liye phulwari naam se naya blog shuru karne ke liye bahut-bahut badhai.
aapka chota bhai
vinay srivastava

kumar Dheeraj 27 फ़रवरी 2009 को 12:11 am बजे  

काल चक्र पर लिखे आपके ये लेख काफी रोचक है । समय के साथ सबकुछ जायज होता जा रहा है । शुक्रिया

Shamikh Faraz 28 फ़रवरी 2009 को 10:39 pm बजे  

kal chakra par aapke lekh qabile tareef hain. mere blog par bhi aayen

Alpana Verma 5 मार्च 2009 को 5:03 am बजे  

bahut hi achchee rachanaa.

bhaavbhari is kavita ne dil ko chhu liya.
safal abhivyakti hetu badhayee

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