हंस रे निर्मोही हंस
मंगलवार, 30 मार्च 2010
हंसो शेखरू
हंसो सिद्धू
हंसो राजू
हंस रे जानी
हंस,हंस रे निर्मोही हंस।
हंसो कि बचपन भूलता जा रहा है हंसना
हंसो कि लड़कियां भूल रही हैं खिलखिलाना
हंसो कि दम तोड़ रहे हैं यौवन के अरमान
हंसो कि बोझ बन गया है बुढ़ापा
हंसो कि बढ़ रही है पागलों की तादाद
हत्यारों की संख्या में हो रहा है इजाफ़ा
हंसो कि गर्भ में मसल दिये जा रहे हैं भ्रूण
हंसो कि आबाद हो रही हैं नई नई बदनाम बस्तियां
हंसो कि शर्म ने रूप धारण कर लिया है बेहयाई का
हंसो कि संगीत को बेदखल कर दिया है शोर ने
हंसो कि अन्न उपजाने वाले खाने लगे हैं कीटनाशक
हंसो कि बेरूत में कत्ल किये गये बच्चे
हंसो कि कत्लगाह बना दिया गया ईराक को
जार जार रोने के समय में तुम हंसो
जरूर हंसो,इतना हंसो कि टूट जाएं
बेशर्मी की सारी हदें।
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कवि:शैलेन्द्र
प्रभारी सपादक ‘जनसत्ता’
कोलकाता संस्करण
मोबाइल न—09903146990
0 श्री शैलेन्द्र हिन्दी के सुपरिचित कवि एवम वरिष्ठ पत्रकार हैं। आपके अब तक तीन काव्य संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।कविताओं के साथ ही समय समय पर दिनमान,रविवार,श्रीवर्षा,हिन्दी परिवर्तन,जनसत्ता,कथादेश,पाखी, आदि पत्र पत्रिकाओं में समाचार कथायें,लेख,टिप्पणियां,कुछ कहानियों का प्रकाशन।पत्रकारिता में एक लंबी संघर्षमय यात्रा पूरी करके इस समय ‘जनसत्ता’ के कोलकाता संस्करण में प्रभारी संपादक पद पर कार्यारत हैं।
हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।