बच्चों का हो पूर्ण विकास— अगर मिले किसी कला का साथ--।
शनिवार, 17 अगस्त 2013
“साहित्य संगीत कला
विहीनः,साक्षत पशु पुच्छ विषाण हीनः”—मतलब यह कि साहित्य संगीत और कला से विहीन मनुष्य
पूंछ और सींग रहित पशु के समान होता है। यह श्लोक बहुत पहले लिखा गया था।पर इसकी
सार्थकता हमेशा रहेगी। वैसे तो इसमें कही गई बातें हर व्यक्ति के ऊपर लागू होती
हैं लेकिन अगर हम इस श्लोक को बच्चों के विकास के संदर्भ में देखें तो इसकी
प्रासंगिकता आज के समय के लिये और भी बढ़ जाती है।
आज बच्चों के अंदर जो
उच्छृंखलता,उद्दण्डता और विद्रोही होने के हालात पैदा हो रहे हैं उसके पीछे बहुत
से कारण हैं।बच्चों के चारों ओर का वातावरण,उनका पारिवारिक माहौल,स्कूल की
स्थितियां,दोस्तों की संगत,टी0वी0,इण्टरनेट इत्यादि। इन्हीं में से एक कारण है
उनका कला जगत से दूर होना। आज आपको बहुत कम परिवार ऐसे मिलेंगे जहां बच्चों को किसी
कला से जोड़ने की कोशिश होती दिखाई पड़े।ज्यादातर अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा
पढ़ लिखकर इंजीनियर,डाक्टर,
आई0ए0एस0,पी0सी0एस0 या कोई बड़ा अफ़सर बन जाय। और इसके लिये वे बच्चों को अच्छे
से अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवायेंगे। कई-कई ट्यूशन और कोचिंग सेण्टर्स भेजेंगे हजारों रूपये खर्च करेंगे।मतलब सुबह से शाम तक सिर्फ़ और सिर्फ़
पढ़ाई।थोड़ा बहुत जो समय बचा वो टी0वी0,इण्टरनेट के हवालें। नतीजा सामने है।बच्चों
के ऊपर बढ़ता मानसिक दबाव,तनाव,रिजल्ट खराब होने पर डिप्रेशन,हीन भावना जैसी
मनोग्रन्थियां बच्चों को जकड़ने लगती हैं।कहीं बच्चा अधिक निराशा में पहुंचा तो वो
आत्महत्या तक करने की कोशिश कर बैठता है।
जबकि इन सारी दिक्कतों से अभिभावक
अपने बच्चों को बचा सकते हैं। सिर्फ़ उसे किसी भी कला से जोड़ कर।चाहे वह गायन
हो,नृत्य हो,स्केचिंग,पेण्टिंग म्युजिक,अभिनय या फ़िर कोई अन्य कला हो। इनसे जुड़ने से बच्चे के अंदर आत्मविश्वास पैदा
होगा। उसे लगेगा कि वह किसी चीज में तो दक्ष है।
ऐसा नहीं है कि आज समाज से
या परिवार से कलाओं का लोप हो गया है। कलाओं का स्थान आज भी परिवारों में है।
परन्तु आज उसका स्वरूप,मकसद बदलता जा रहा है।बहुत से परिवारों में आज भी बच्चों को
नृत्य,संगीत,अभिनय आदि कलाओं का प्रशिक्षण दिलवाया जा रहा है। लेकिन उसके पीछे
उनका मकसद व्यावसायिक हो गया है न कि बच्चों का आत्मिक विकास। वे चाहते हैं कि
उनका बच्चा आगे चलकर उस कला के माध्यम से
धन कमा सके। जब कि ऐसा नहीं होना चाहिये। किसी भी कला का सर्वप्रथम
उद्देश्य बच्चों को या किसी भी व्यक्ति को एक अच्छा इन्सान बनाना होता है। उसे
अनुशासन सिखाना होता है।व्यावसायिकता तो बहुत आगे की बात होती है। और फ़िर यह जरूरी
नहीं है कि हर बच्चा गायन सीख कर सोनू निगम या अभिनय सीख कर शाहरुख खान बने ही।
लेकिन इतना तय है कि वह बच्चा उस कला के माध्यम से अनुशासित जरूर हो जायेगा।समय की
पाबन्दी जरूर सीखेगा।मेहनत करना जरूर सीखेगा। उसके अंदर आत्मविश्वास जरूर पैदा
होगा—कि वह भी कुछ करने लायक
है।
हमारे अभिभावकों को भी यह बात
समझनी चाहिये कि यदि वे अपने बच्चों को पढ़ाई के,स्कूल के तमाम दबावों और तनावों से
छुटकारा दिला सकते हैं तो इस काम में कोई भी कला निश्चित रूप से किसी
दवा,चिकित्सक,मनोचिकित्सक से बढ़ कर कारगर सिद्ध हो सकती है। इतना ही नहीं कला भी
उसके सम्पूर्ण विकास में उतनी ही सहायक होगी
जितना कि पढ़ाई-लिखाई या खेलकूद। मैं इस बात को पुष्ट करने के लिये यहां एक
उदाहरण दूंगा। मैंने अपने एक मित्र से कहा कि आप अपने बेटे को शैक्षिक दूरदर्शन के
कार्यक्रमों में क्यों नहीं भेजते?बस इतना कहना था कि वो उखड़ गये मेरे ऊपर।
उन्होंने सीधे-सीधे मुझसे कह दिया कि “मैं अपने बच्चों को बर्बाद नहीं करना चाहता। और अब दुबारा
कभी मुझसे यह बात मत कहना।” मैं उनका गुस्सा देख कर चुप हो गया। लगभग पांच छः साल के
बाद मेरे वही मित्र अपने बच्चे को लेकर मेरे पास आये। उस समय उनका बच्चा कक्षा 8
में था। उन्होंने मुझसे कहा कि “इसे कुछ याद ही नहीं होता।दिन रात पढ़ता रहता है। और भेजे
में कुछ घुसता ही नहीं।खेलने कूदने में भी मन नहीं लगता।कुछ कह दो तो रोने लगता
है।” वो अपने बेटे के भविष्य
को लेकर काफ़ी चिन्तित भी लग रहे थे।मैंने उन्हें शान्त कराया। और उनसे अनुरोध करके
उनके बेटे को मैंने एक इन्स्ट्रुमेण्टल म्युजिक की क्लास ज्वाइन करवा दी। लड़के ने
बांसुरी बजाना सीखना शुरू किया। और छःमहीने बितते बीतते उस बच्चे का पूरा स्वभाव ही बदल गया। उसका सारा गुस्सा,सारी
उद्दण्डता गायब। वह अब पढ़ने में भी रुचि लेने लगा था। उनका वही जिद्दी,शैतान बच्चा
हाई स्कूल,इण्टर प्रथम श्रेणी में पास हुआ। फ़िर इन्जीनियरिंग पास किया।आजकल वही बच्चा एक मल्टीनेशनल कम्पनी में है।
- बच्चे को अनुशासित
बनाती है।
- बच्चे के अंदर
आत्मविश्वास भरती है।
- वह किसी भी काम को
एक व्यवस्थित और साफ़ सुथरे ढंग से करना भी सीखता है।
- उस कला के माध्यम
से बच्चे का मानसिक तनाव भी खतम होता है।
- उस कला में रोज नये
प्रयोगों के करने से उसका बुद्धि कौशल भी बढ़ता है।
- वह अपने भावी जीवन
में भी हर काम को बहुत ही सलीके से और कलात्मक ढंग से पूरा करता है।
- कला बच्चे के अन्दर
कुछ नया करने ,सृजित करने का उत्साह भी पैदा करती है।
- कला बच्चे के
व्यक्तित्व को सौम्य,हंसमुख और मिलनसार बनाती है।
- और सबसे बड़ी और अहम
बात यह कि कोई भी कला आपके बच्चे के व्यक्तित्व को सम्पूर्ण बनाती है।
इसलिये सभी अभिभावकों के साथ ही सभी शिक्षकों से भी यही कहूंगा कि बच्चों
को किसी भी कला से जोड़कर देखिये आपको हर रोज उसके व्यक्तित्व,व्यवहार,कौशल और
प्रदर्शन का एक नया और अनूठा आयाम दिखाई पड़ेगा।
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कुमार