कथा,काव्य,यात्रावृत्त और दर्शन का अद्भुत संगम----‘देख लूं तो चलूं’।
बुधवार, 12 अक्टूबर 2011
पुस्तक
देख लूं तो चलूं
लेखक:समीर लाल ‘समीर’
प्रकाशक:शिवना प्रकाशन
पी0सी0लैब,सम्राट काम्प्लेक्स बेसमेण्ट
बस स्टैण्ड,सिहोर(म0प्र0)
भारत
मूल्य– रू0-100/मात्र
कथा,काव्य,यात्रावृत्त और दर्शन का अद्भुत संगम----‘देख लूं तो चलूं’।
साहित्य में हर विधा की पुस्तक पढ़ने का अपना अलग आनन्द होता है। कहानी,कविता,नाटक,उपन्यास,व्यंग्य,यात्रा वृत्तान्त सभी विधाओं की अपनी खूबियां होती हैं। सबका अलग अलग प्रभाव और आनंद होता है। और सबसे बड़ी बात यह कि सभी विधाओं के पाठक भी अलग अलग अभिरुचि के होते हैं। किसी पाठक को कविता आनन्दित करती है तो किसी को कथा साहित्य,किसी कू नाटक तो किसी को व्यंग्य। ज्यादातर पाठक किसी एक विधा के लिये ही एक किताब खरीदता और पढ़ता है। इसका कारण यह भी है कि बहुत कम ही पुस्तकें ऐसी मिलेंगी जिनमें आपको हर विधा का रसास्वादन मिल सके।लेकिन हाल ही में प्रकाशित समीर लाल ‘समीर’ की पुस्तक ‘देख लूं तो चलूं’ इस विषय में अपवाद है।अपवाद इसलिये कि यह उन गिनी चुनी किताबों की श्रेणी में रखी जा सकती है जिसमें आपको साहित्य की अलग अलग विधाओं की रसानुभूति हो सकेगी।यानि कि इसे पढ़ते समय आपको कहानी,कविता,उपन्यास,यात्रावृत्त सभी का आनन्द मिलेगा। मेरी एक आदत है। मैं कोई भी पुस्तक बहुत आराम से पढ़ता हूं। यानि कि ब्रेक लगा लगाकर। लेकिन इस मामले में भी यह किताब अपवाद सिद्ध हुई। यानि कि आदत के विरुद्ध मैं इसे एक ही बैठक में पढ़ गया। जबकि ऐसा मेरे साथ बहुत कम ही हुआ है। कुछ गिनी चुनी किताबें हैं जिन्हें मैं सारा काम छोड़कर पढ़ने लगा था।‘देख लूं तो चलूं’ भी उन्हीं किताबों की सूचि में शामिल हो गयी।जबकि इस पुस्तक की कहानी इतनी मात्र है कि लेखक को अपने किसी मित्र के घर गृह प्रवेश की दावत में पहुंचना है। और वह कार से कनाडा के एक हाइवे पर यात्रा कर रहे हैं। सिर्फ़ इतने छोटे से कथ्य को लेकर एक उपन्यासिका लिख देना कलम के एक मजे हुये खिलाड़ी के बूते की बात है। और इस मामले में में समीर जी बधाई के पात्र हैं।
अपने घर से निकलकर मित्र के घर पहुंचने की इस पूरी यात्रा के दौरान समीर जी ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ दो देशों,दो संस्कृतियों,रीति रिवाजों,दो देशों की राजनैतिक स्थितियों,राजनेताओं,जनता के स्वभाव के अन्तर,आदि को बड़े करीने से शब्दों में बांधा है।इस पुस्तक में जहां आपको प्रवासी भारतीयों का दर्द,उनके वतन छूटने की पीड़ा,उनके मन में चल रही उथल पुथल पढ़ने को मिलेगी वहीं दूसरी ओर भारतवर्ष में उनके रिश्तेदारों,उनके हम वतन मित्रों के मन में चलने वाले विचार भी पढ़ने को मिलेंगे। एक मां बाप जिनका बेटा कनाडा,फ़्रांस,जर्मनी,टोक्यो या अन्य किसी देश में नौकरी करने चला गया है।उस मां पिता के मन की छटपटाहट,बेटे के वापस आने की प्रतीक्षा में जाग जाग कर पूरी रात बिताना,आपस की बातचीत में हर वक्त उस बेटे/बहू/बच्चों की चर्चा मन को कहीं गहराई तक आन्दोलित कर जाती है।
उपन्यासिका का हर प्रसंग अपने आप में एक अलग कहानी होते हुये भी आपस में इस तरह जुड़ा है कि पाठक किताब शुरू करने के बाद समाप्त करके ही छोड़ेगा।चाहे वो प्रवासी हो गये बेटे के इन्तजार में बातों में रात काटने की कोशिश कर रहे वृद्ध दम्पत्ति हों,जर्मनी में समलैंगिकों की पार्टी की घटना हो,ट्रेन में प्रेमी युगल के किसिंग का दृश्य हो,भारतवर्ष में मित्र के पिता के निधन का प्रसंग हो या इस ढंग के अन्य प्रसंग।जिस तरह आप किसी बहुत सुन्दर मकान में प्रवेश करें और उसके कमरे दर कमरे में प्रवेश करते जा रहे हों---और हर दरवाजा आपको एक अलग खूबसूरत कमरे में पहुंचा रहा हो—एक दरवाजे के अंदर दूसरा,दूसरे के अंदर तीसरा,चौथा और हर बार आपके मुंह से निकले वाह—अरे—अद्भुत—कुछ ऐसा ही अनुभव आप पायेंगे इस पुस्तक को पढ़ते हुये।छोटी छोटी घटनाओं ,प्रसंगों को समीर जी ने जिस प्रकार अपनी हाइवे की कार यात्रा के साथ संयोजित किया है वह अद्भुत है। हर घटना,प्रसंग पढ़कर पाठक चमत्कृत, अभिभूत होता हुआ आगे बढ़ता है। इसमें एक तरफ़ भारत देश है,यहां के गांव हैं,मध्य प्रदेश की यादें हैं तो दूसरी तरफ़ कनाडा है,वहां की संस्कृति है,वहां के लोग हैं,उनका व्यवहार है।
यहां आपको भाषा और शिल्प का ऐसा अद्भुत अनोखा सामंजस्य मिलेगा जो प्रायःगद्य में कम पढ़ने को मिलता है। भाषा इतनी सहज और प्रवाहमयी कि ऐसा नहीं लगता है कि हम पुस्तक पढ़ रहे हैं।सारे दृश्य एक चलचित्र की तरह हमारी आंखों के सामने से गुजरते जाते हैं। और दृश्यों का यही गुजरते जाना ही इस उपन्यासिका की शैली की सबसे बड़ी विशेषता है। यह किताब पढ़ते हुए मुझे एक और उपन्यास बार बार याद आ रहा था। वो उपन्यास है प्रख्यात समाजवादी चिंतक,आलोचक एवं भूतपूर्व अध्यक्ष,हिन्दी विभाग इलाहाबाद युनिवर्सिटी मेरे गुरु डा0 रघुवंश जी का उपन्यास ‘तन्तुजाल’।रघुवंश जी के ‘तन्तुजाल’ का नायक भी ट्रेन की लम्बी यात्रा में है। और उसकी पूरी यात्रा के साथ घटनाओं,संवेदनाओं, और व्यक्तियों का समूह लेखक से लगभग चार सौ पृष्ठ लिखवा डालता है। पूरी यात्रा में ट्रेन की खटर खट्ट,----सीटी, स्टेशन,चायवाले वेण्डर,कुली---और उनके बीच से निकलता नायक का चिन्तन ,उसकी सोच,समाज,देश के प्रति उसकी चिन्ताएं—और भी बहुत कुछ। हां यह बात जरूर है कि रघुवंश जी की भाषा अपेक्षाकृत थोड़ा कठिन और बोझिल है।लेकिन इसके बावजूद वह उपन्यास मैंने कई बार पढ़ा है।
समीर जी की इस उपन्यासिका में उनके कवि मन,यायावरी प्रवृत्ति, और छोटी छोटी चुटकियां लेकर अपनी बात बढ़ाने की विशेष कला स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। और उनकी यही चुटकियां,व्यंग्यात्मक शैली उन्हें अन्य लेखकों से अलग करती है।
एक और विशेषता इस पुस्तक की जो बहुत प्रभावित करती है कि हर प्रसंग की शुरुआत तो समीर जी बहुत ही मजेदार और हंसमुख वातावरण से करते हैं।पर वह प्रसंग समाप्त होते होते वो पूरे दार्शनिक हो जाते हैं। इतना ही नहीं प्रसंग की समाप्ति पर पहुंच कर तो हमें मानव जीवन की उन सच्चाइयों,उन आदर्शों,उन रास्तों से रूबरू कराते हैं जिन पर यदि दुनिया चले तो शायद धरती की रंगत ही बदल जाय। देशों,सम्प्रदायों,धर्मों,जातियों के सारे विवाद ही समाप्त हो जायं।लेकिन ऐसा संभव हो तब न…?कुल मिलाकर अगर मैं यह कहूं कि ‘देख लूं तो चलूं’ घटनाओं,कथ्यों,शब्दों और भाषा का ऐसा अद्भुत कोलाज है जिसे पाठक बार बार पढ़ना चाहेगा।
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हेमन्त कुमार
समीर लाल समीर
दुनिया में हिन्दी का भला कौन सा ब्लागर,पाठक होगा जो समीर जी से अपरिचित होगा।जबलपुर, मध्य प्रदेश में जन्मे समीर जी अपनी पढ़ाई पूरी करके कनाडा पहुंच गये।जबलपुर से कनाडा तक की इस यात्रा,देश छूटने की पीड़ा,अपने देश भारत के लिये कुछ करने की तमन्ना उनके लेखन में हमें परिलक्षित होती है। कनाडा के प्रतिष्ठित बैंकों में तकनीकी सलाहकार।‘उड़न तश्तरी’ ब्लाग के साथ ‘मोहे बेटवा न कीजो’(लघुकथा संग्रह),‘बिखरे मोती(काव्य संग्रह)’,और ‘देख लूं तो चलूं’(उपन्यासिका)
साथ ही 2007 का विश्व के सर्वश्रेष्ठ ब्लागर का सम्मान आपके खाते में है।